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सबका आदि मूल – परमेश्वर

इस सृष्टि में जो भी ज्ञेय पदार्थ व उसके जानने का साधन ज्ञान है, उसकी उत्पत्ति कैसे हुई, यह प्रश्न सृष्टि के आदि काल से ही मानव मस्तिष्क में उत्पन्न होता रहा है। संसार के सभी ईश्वरवादी संप्रदाय निश्चित रूप से यह मानते हैं कि इन दोनों का आदिमूल परमात्मा है। वेद, प्रचलित पुराण, कुरान, बाईबल आदि सभी ग्रंथ इस बात पर एकमत हैं, भले ही ईश्वर केे स्वरूप के विषय में मतभिन्नता है। इसी एक सत्य को प्रतिपादित करते हुए आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद जी सरस्वती ने प्रथम नियम में लिखा-

 ‘‘सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है।’’ 

महर्षि का यह वाक्य अत्यंत सारगर्भित एवं स्पष्ट है पुनरपि बड़े दुर्भाग्य का विषय है कि बड़े-बड़े सुपठित आर्यजन यहाँ तक कि व्याकरणादि शास्त्रों के निष्णात विद्वान् भी इस वाक्य का अर्थ समझने में भ्रान्त होते देखे जाते हैं। एक ऐसे ही निष्णात विद्वान् ने अपने द्वारा सम्पादित मासिक पत्र के संपादकीय में इसे …‘‘सत्य, विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं…’’ लिखकर विद्या तथा पदार्थ विद्या, ये दो प्रकार की विद्याएं बताई हैं। तथा इन दोनों को सभी सत्य ज्ञान का साधन बताया है। इन बंधु की समझ में यह साधारण बात नहीं आयी कि ‘पदार्थ’ से पूर्व ‘जो’ सर्वनाम किस संज्ञा से संबंधित है? ये सत्य को जानने का साधन इन विद्याओं को बता रहे हैं, तब ‘जो’ सर्वनाम सत्य के साथ प्रयुक्त होगा। तब वाक्य इस प्रकार होगा.. सब सत्य जो विद्या और पदार्थविद्या से जाने जाते हैं,….’’ महर्षि ने ‘सत्यविद्या’ जो समस्त पद के रूप में प्रयुक्त किया है, उसका यहां कोई अर्थ ही नहीं रहेगा जबकि ‘सत्य’ व ‘विद्या’ पदों के मध्य ‘जो’ आने पर महर्षि के वाक्य का स्वरूप ही बदल जायेगा। क्या किसी को भी यह अधिकार है कि वह महर्षि  के वाक्य को ही बदलने की मनमानी करे। महर्षि के वाक्य का अर्थ न जान सके, तो वाक्य ही बदल दिया।

उधर कोई महानुभाव यहाँ सत्यविद्या को एक पद तथा पदार्थविद्या को अन्य एक पद मानकर सत्यविद्या व पदार्थविद्या इन दो प्रकार की विद्याओं का मूल परमेश्वर को मानते हैं। इन महानुभावों में भी वाक्य को समझने की योग्यता नहीं हैं। इन्हें ‘जो’ सर्वनाम दिखाई ही नहीं देता। इस प्रकार की मिथ्या व्याख्या भी मैंने एक आर्य पत्रिका में देखी है। मैं ऐसे विद्वान् लेखकों की अज्ञानता को दूर करते हुए भी उनके सम्मान की रक्षा हेतु उनका नामोल्लेख करना उचित नहीं समझता।

एक बार ऋषि उद्यान, अजमेर में एक वृद्धा माता, जो सेवानिवृत्त प्राचार्या थीं, तथा अनेक विद्वानों के सत्संग का लाभ उठाती रही थीं, ने भी ऐसी ही शंका प्रस्तुत की थी।

इन भ्रान्त धारणाओं की चर्चा के उपरांत हम महर्षि के वाक्य को यथावत् विचारने का प्रयास करते हैं-

‘‘सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सब का आदि मूल परमेश्वर है।’’ यहां स्पष्ट ही ‘सत्य’ पद ‘विद्या’ के साथ विशेषण के रूप में जुड़ा हुआ है। और ‘पदार्थ’ विद्या पद से पृथक् पद है। ‘जो’ सर्वनाम ‘पदार्थ’ संज्ञा के साथ संगत है। इस द्वितीय ‘विद्या’ पद के साथ सत्य विशेषण नहीं है परंतु यहां लुप्त रूप में इसके साथ जुड़ा अवश्य है अर्थात् यह ‘विद्या’ पद पूर्व में आये ‘सत्यविद्या’ के लिए ही प्रयुक्त है। यहाँ संपूर्ण वाक्य का अर्थ है कि संपूर्ण सत्यविद्या एवं जो पदार्थ उस सत्यविद्या से जाने जाते हैं, का आदिमूल परमेश्वर है। यहाँ ‘सत्यविद्या’ पद वेद की ओर संकेत कर रहा है, जैसा कि आर्य समाज के तृतीय नियम में वर्णित है। इसके साथ ही ‘पदार्थ’ पद इस संपूर्ण सृष्टि के पदार्थों अर्थात् ईश्वर, जीव व प्रकृति तथा प्रकृति के विकार रूप में उत्पन्न सभी जड़ पदार्थों की ओर संकेत कर रहा है। ये सभी पदार्थ जिस वेदविद्या से जाने जाते हैं, वही सत्यविद्या है। इस प्रकार इस सृष्टि के सभी जड़ व चेतन पदार्थ तथा उनको जानने का साधन सत्यविद्या दोनों की उत्पत्ति का मूल निमित्त कारण परमात्मा है। यहाँ कोई यह शंका करे कि ‘पदार्थ’ पद के पश्चात् आये ‘विद्या’ के साथ ‘सत्य’ पद क्यों नहीं? इसके उत्तर में मैं कहना चाहूंगा कि यह कोई दोश नहीं है। ऋषि अपनी बात सूत्र रूप में ही कहते हैं। अनावश्यक विस्तार देना उनका स्वभाव नहीं होता। सभी आर्ष ग्रंथ इसी शैली के प्रतिपादक हैं। वैसे भी यदि मैं कहूँ, ‘‘कि यह काला घोड़ा और जो व्यक्ति घोड़े पर बैठा है, का निवास वह गांव है,’’ तब क्या यहां यह अर्थ नहीं निकल सकता कि वह काला घोड़ा तथा जो व्यक्ति उस काले घोड़े पर बैठा है, उस गांव के रहने वाले हैं। अवश्य ही यहाँ यही अर्थ है। इसी प्रकार की शैली में आर्य समाज का प्रथम नियम लिखा गया है।

अब यहां कोई यह प्रश्न कर सकता है कि महर्षि पतंजलि ने योगसूत्रों में पदार्थ के स्वरूप के यथार्थ ज्ञान को ही विद्या कहा है,जैसे सत्य को सत्य, आत्मा को आत्मा तथा सुख को सुख आदि मानना व जानना ही विद्या कहाती है। तब ‘विद्या’ के लिए ‘सत्य’ विशेषण का प्रयोग क्यों? क्या विद्या कभी असत्य भी हो सकती है? इस विषय में मेरा मानना है कि महर्षि दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में ‘सत्’ का अर्थ नित्य किया है। इस कारण यहाँ ‘सत्य’ पद को नित्य का पर्यायवाची मानना चाहिए। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सभी प्रकार का नित्य ज्ञान और उस नित्य ज्ञान से जो पदार्थ जाने जाते हैं अथवा जाने जा सकते हैं, उन दोनों ही का आदि मूल परमात्मा है। यह नित्य ज्ञान वेद है और वेद से जानी जाने वाली संपूर्ण सृष्टि, इन दोनों का कर्ता परमात्मा है। यहां अनित्य विद्या का कर्ता परमात्मा नहीं है। इसका अर्थ यह है कि वेद में अनित्य इतिहास आदि विद्यायें नहीं है, भले ही वे विद्याएं यथार्थ हों।

किसी राजा, रानी, ऋषि, मुनि का इतिहास, पर्वत, देश, आदि के नाम अनित्य इतिहास के भाग हैं, इनका वर्णन वेदों में नहीं हो सकता। इस कारण आर्य समाज के प्रथम नियम में महर्षि वेद व सृष्टि दोनों का कर्ता परमेश्वर को मानते हैं, इसे इसी संदर्भ में ग्रहण करना चाहिए न कि नाना भ्रांतियों में फंसकर अपना समय व्यर्थ करना चाहिए।

लेख- आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक, वैदिक वैज्ञानिक

 

 

 

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