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साइंस का मूल स्रोत क्या ?

विद्ज्ञाने’ धातु से निष्पन्न होने से वेद शब्द का अर्थ ही ज्ञान होता है और जो विशेष ज्ञान है उसको विज्ञान कहते हैं, जिसको कि अंग्रेजी में साइंस कहा जाता । पूरे संसार में अनेक प्रकार के ज्ञान-विज्ञान का पढ़ना-पढ़ाना प्रचलित है, परन्तु इन सब ज्ञान-विज्ञान का मूल स्रोत क्या है ? ये सब ज्ञान-विज्ञान आये कहाँ से ? कुछ लोगों का कहना है कि अलग-अलग विद्वानों ने अपनी-अपनी बुद्धि, योग्यता, अनुभव व सामर्थ्य से नये-नये ज्ञान का खोज करके लोगों के सामने उपस्थापित कर दिया । परन्तु वास्तव में संसार का यह एक नियम है कि, बिना सिखाये कोई भी व्यक्ति कुछ भी नहीं सीख सकता । इससे ज्ञात होता है कि, संसार में जितने भी ज्ञान-विज्ञान देखने-सुनने को मिलता है, इन सबको भी सिखाने वाला कोई न कोई होगा । अन्तिम में देखें तो महर्षि पतंजलि जी के अनुसार “स एषः पूर्वेषामपि गुरुः…”- (योग॰) अर्थात् सभी गुरुओं का भी गुरु परमेश्वर ही है और परमेश्वर का दिया हुआ ज्ञान ही यह चारों वेद है ।

महर्षि मनु महाराज कहते हैं,- “सर्व ज्ञानमयो ही सः” अर्थात् वेद सब ज्ञान-विज्ञान का भण्डार है । हम मनुष्यों के लिए जीवन भर में जितना कुछ भी आवश्यक हो सकता है उन सब चीजों का ज्ञान-विज्ञान दयालु परमेश्वर ने हमें दे रखे हैं । इस संसार में हर प्रकार का व्यवहार सम्पादन करने हेतु और सब प्रकार की समस्याओं का समाधान हेतु पर्याप्त ज्ञान वेद में निहित है । इस बात की प्रामाणिकता तो तब होगी जब हम वेद में ही गोता लगायेंगे और निरीक्षण-परीक्षण करेंगे ।

वैसे तो वेद के अन्दर अनेक विषयक विज्ञान सम्बन्धी निर्देश भरे पड़े हैं परन्तु हम कुछ ही बिन्दुओं का संकेतात्मक दिग्दर्शन करने का प्रयास करेंगे । जैसे कि यजुर्वेद में कहा- “विश्वस्य दूतममृतम्॰” ( यजुर्वेद :-15.33) अर्थात् अग्नि (ऊर्जा) संसार का अमर दूत है, उसमें सम्प्रेषण शक्ति स्थित है । ऋग्वेद में कहा – “श्रुधि श्रुत्कर्ण वह्निभिः॰” (ऋ.1.44.13) अर्थात् विद्युत् में श्रवण शक्ति विद्यमान है । “अरण्यो निहितो जातवेदा:॰” (ऋ.3.29.2) अर्थात् दो लकड़ियों को रगड़ कर अग्नि का आविष्कार किया जाता है । “सूरात् अश्वं वसवो निरतष्ट॰” (ऋ.1.163.2) अर्थात् वैज्ञानिकों ने सूर्य से अश्व शक्ति वा सौर ऊर्जा को निकाला । “चकृषे भूमिं प्रतिमानं”…(ऋ.1.52.12) अर्थात् सूर्य भूमि को आकर्षित किया हुआ है ।“अग्निषोमौ बिभ्रति आप इत् ताः” (अथर्व.3.13.5) अर्थात् जल के अन्दर अक्सीजन और हाइड्रोजन विद्यमान है ।“प्रसोमासो विपश्चितो अपां न यन्ति ऊर्मयः” (ऋ.9.33.1) अर्थात् चन्द्रमा के आकर्षण से समुद्र की लहरें ऊपर उठती हैं। “शकमयं धूमम् आरादपश्यम्…” (ऋ.1.164.43) अर्थात् सूर्य की चारों ओर शक्तिशाली गैस फैली हुई है ।

हमें जिस प्रकार से इतिहास पढाया जाता है और बताया जाता है, हमारे मन-मस्तिष्क में इस प्रकार भर दिया गया है कि हमारे भारतीय लोग मुर्ख थे, जंगली थे, उन्हें कुछ नहीं आता था । जो कुछ भी उदभावन, गवेषणा, खोज किया है वह सब पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने ही किया है, छोटी सी सुई से लेकर बड़े से विमान तक विदेशी वैज्ञानिकों ने ही बनाया है । जब कि यह सब बातें पूरी तरह मिथ्या हैं । जब हम वेदादि शास्त्र व ऋषि-मुनि कृत अनेक ग्रंथों का अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि पहले से ही इन सब शास्त्रों में समस्त प्रकार की विद्या हमारे पूर्वज ऋषियों ने खोज कर लिया था तथा विज्ञान सम्बन्धी अनेक वस्तुओं का निर्माण व प्रयोग भी कर लिया था । इसका सबसे बड़ा उदाहरण अभी भी हमारे सामने उपस्थित है महर्षि भरद्वाज जी के द्वारा प्रणीत “बृहद-विमान-शास्त्र” के रूप में । इस पुस्तक में अनेक अन्य आचार्यों के नाम भी उल्लिखित है, जो कि विमान-शास्त्र के प्रणेता रहे हैं । विमान को किन-किन धातुओं से बनाना चाहिए ? युद्ध की स्थिति में विमान को कैसे बचाना चाहिए ? विमान किस प्रकार आकाश, भूमि और जल के ऊपर व भीतर भी चल सके ? विमान चालक किस प्रकार का वस्त्र धारण करे, कैसा भोजन करे ? इन सभी बातों की विस्तृत जानकारी इस विमान-शास्त्र में निर्देशित किये गए हैं । इससे ज्ञात होता है कि प्राचीन काल से ही हमारे ऋषि-मुनिओं ने ऐसी अनेक वस्तुओं का निर्माण किया है और उन सब का प्रयोग भी किया करते थे ।

इस प्रकार सैकड़ों मन्त्र वेद में विद्यमान हैं जिनमें सैकड़ों वस्तुओं के निर्माण का निर्देश दिया गया है । जैसे कि सुनने में आता है,- वेद में सभी प्रकार की विद्या विद्यमान है जिससे सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान हो सकता है । वर्त्तमान समस्याओं के परिपेक्ष में समाज जिससे भयंकर रूप से पीड़ित है उनसे कैसे बचा जाये, उन समस्याओं का क्या समाधान हो सकता है, सब कुछ वेद में उपदेश किया गया है । वेद के ऐसे और कुछ उदाहरण प्रस्तुत करते हैं ।

आज कल प्रदूषण से लोग कितना दुखी व परेशान हो रहे हैं, श्वास लेना दुष्कर हो रहा है, लेकिन सरकार की ओर से भी कोइ विशेष उपाय नहीं किया जाता । वेद में उसका निराकरण हेतु बताया कि “वनस्पतिः शमिता…” (यजुर्वेद. 29.34) अर्थात् वनस्पति प्रदूषण निरोधक होता है अतः हमें अधिक से अधिक वृक्ष-वनस्पतिओं का रोपण करना चाहिये। आज यदि समाज में लोग यज्ञ-अग्निहोत्र को ही अपना लेते तो प्रदूषण से इतनी अधिक मात्रा में पीड़ित न होते, किन्तु सुख-शान्ति से युक्त रहते । जैसे कि यजुर्वेद में कहा गया है कि – “वाताय स्वाहा, धूमाय स्वाहा, अभ्राय स्वाहा, मेघाय स्वाहा…” (यजु. 22.26) अर्थात् जो मनुष्य वायु की शुद्धि के लिए, धूम की शुद्धि के लिए, मेघ की शुद्धि के लिए यज्ञ क्रिया करते हैं वे पुण्यात्मा हो कर सबका हित करने वाले होते हैं । अतः सबको यज्ञ-अग्निहोत्र का अनुष्ठान नित्य-प्रति करते रहना चाहिए ।

जब कभी वर्षा के न होने से राज्य में सुखा वा अकाल पड़ता है, तब यज्ञ के माध्यम से वृष्टि कराने का विधान भी है । उसी प्रकार जब कभी अधिक वर्षा के कारण बाढ़ आ जाये, तो उस स्थिति में वर्षा को रोकने के लिए भी यज्ञ करने का विधान वेद में प्रतिपादित है । अथर्ववेद में ऐसा निर्देश किया गया है कि जस ओर वायु जाती है, उस ओर बादल भी चल पड़ते हैं अर्थात् वातावरण व परिस्थिति के अनुरूप हम अपनी इच्छा से वायु की दिशा बदल कर मेघ को स्थानान्तरित कर सकते हैं और वृष्टि करा सकते हैं । “मरुद्भिः प्रच्युता मेघाः प्रावन्तु पृथिवीमनु” (अथर्व.4.15.9) अर्थात् वायुओं से प्रेरित मेघ पृथिवी की ओर खूब जोर से उमड़कर आवें । इस प्रकार अति-वृष्टि और अनावृष्टि रूपी समस्या का समाधान भी वेद ज्ञान के द्वारा संभव है ।

वेद में ऐसा निर्देश भी किया गया है कि, यज्ञ के द्वारा रोगों की चिकित्सा होती है । “मुञ्चामि त्वा हविषा जीवनाय कमज्ञातक्ष्मादुत…” (अथर्व.3.11.1) अर्थात् हे व्याधिग्रस्त मनुष्य! तुझे सुखमय जीवन व्यतीत करने के लिए यज्ञ-हवन के द्वारा ज्ञात और अज्ञात रोगों से बचाता हूँ । वैसे तो सम्पूर्ण आयुर्वेद ही ऋग्वेद का उपवेद है जिसमें कि मनुष्यों के साथ-साथ पशु-पक्षियों के शरीर को भी स्वस्थ, बलवान, निरोग व दीर्घायु रखने के लिए विविध प्रकार के उपाय और औषधि बताये गए हैं ।

आज-कल आतंकवादी और नक्सलवादी बहुत ही मात्रा में बढ़ते जा रहे हैं, उनको भी नियन्त्रण करना राजा का कर्त्तव्य है जैसे कि वेद मन्त्र के माध्यम से यह ईश्वरीय आदेश है – “मेनिः शतवधा हि सा” (अथर्व.12.5.16) अर्थात् वज्ररूप शस्त्र से हजारों आततायियों को मारा जा सकता है । “नि चक्रेण रथ्या…” अर्थात् राजा चक्र के द्वारा शत्रु पर प्रहार करे ।

विज्ञान सम्बन्धी ऐसी ऐसी विद्या वेद में भरे पड़े हैं कि हमारी हर आवश्यकता की पूर्ति हो जाये और हर समस्या का समाधान हो जाये । सृष्टि विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, अर्थ-व्यवस्था, कृषि विज्ञान, पशु विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, पर्यावरण-विज्ञान, राजनीति-विज्ञान, शिक्षा-शास्त्र, चिकित्सा-विज्ञान, शल्यचिकित्सा, यज्ञ-चिकित्सा, जल-चिकित्सा, सूर्य-चिकित्सा, वायु-चिकित्सा, जीव-विज्ञान, आयुर्वेद विज्ञान, मानसरोग-विज्ञान, परोपकार विज्ञान, इत्यादि अनेक प्रकार के विज्ञान सम्बन्धी निर्देश है ।

लेख – आचार्य नवीन केवली

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