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हत्या और हत्या में अंतर

देश की राजधानी दिल्ली के मोती नगर थानाक्षेत्र में स्थित बसई दारापुर गांव में ध्रुव त्यागी को 11 मजहबी उन्मादियों ने घेरकर बेहद ही क्रूरतम तरीके से मारा था जिसमें 4 महिलायें भी शामिल थी। बताया जा रहा है ध्रुव त्यागी अपनी बेटी को लेकर जा रहा था तभी कुछ लड़के उसके ऊपर फब्तियां कसने लगे. ध्रुव त्यागी ने विरोध किया तो उन्होंने बेरहमी से ह्त्या कर दी गई। और उसके भाई पर भी जानलेवा हमला किया गया, लड़की का भाई जिंदगी और मौत से जूझ रहा है। यह घटना 11 मई देर रात की है।

जो हुआ है उसका मुझे गहरा दुख है लेकिन हम के ख़िलाफ नफरत का माहौल नहीं चाहते हमारी किसी पंथ से कोई शिकायत नहीं है। हां हमारी शिकायत उन नेताओं से हैं जो नेता अखलाक के मामले में दिल्ली से दादरी पहुंचे थे और उनके परिवार को लाखों के चेक और संवेदना व्यक्त की थी। मुझे शिकायत है इस मामले में उन बुद्धिजीवियों, कलमकारों प्रेस पत्रकारों से जो अखलाक की हत्या से दुखी होकर अपने अवार्ड वापिस कर रहे थे। शिकायत उन टीवी चेनलों से भी है जो अखलाक की मौत को देश के लिए गहरा धब्बा बताकर असहिष्णुता का माहौल बता रहे थे। उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव फ्लेट बाँटने पहुँच गये थे और आजम खान युएनओ को चिट्ठी लिख रहे थे कि देखिये साहब भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं है।

बसई दारापुर में सभी हत्यारे एक मजहब विशेष के थे लेकिन देश में उनकों हत्यारा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि वो कथित अल्पसंख्यक समुदाय से आते है। हत्यारे तो यहाँ सिर्फ वो लोग होते है जो पहलु खान और अखलाक की हत्या करते है। इसलिए बसई दारापुर के हत्यारों को मीडिया मनचले कह रही है। बावजूद इसके कि हत्यारे ने अपनी मां से कहा कि घर से सामान लाओ, मां घर से चाकू लेकर आई. हत्यारे के परिवार के अन्य लोगों ने लड़की के पिता ध्रुव त्यागी को पकड़ लिया और हत्यारे ने उन्हें चाकू से गोद दिया। वारदात में शमसेर का पिता, मां, दोनों भाई, तीन-चार बहनें, एक दामाद और अन्य लोग शामिल हैं लेकिन मीडिया की नजर में सब मनचले है।

एक पल को सोचिए यदि इस घटना में मृतक मुसलमान होता और हत्यारा किसी अन्य धर्म से क्या तब आपको मीडिया में यह खामोशी दिखाई देती? ऐसा नहीं है मीडिया हमेशा खामोश रहता है नहीं मीडिया पहले मजहब देखता है फिर बोलता है क्योंकि जब राजस्थान में रकबर खान की हत्या होती है तो तब मीडिया देश को सिर पर उठा लेता है। हैरत करने वाली बात ये भी थी कि मारा गया रकबर खान वांटेड अपराधी था लेकिन उसे मीडिया के एक विशेष वर्ग द्वारा मासूम बताया यहां तक कि विदेशी अखबारों में भी भारत को बदनाम करने के लिए एजेंडा चलाया गया।

लेकिन जब दिल्ली के मानसरोवर गार्डन में घर से एयरहोस्टेस बनने की आकांशा लेकर रिया गौतम नाम की एक युवती घर से निकलती है और घर के बाहर उसे आदिल खान, खुलेआम चाकू से ताबड़तोड़ वार करके मौत के घाट उतार देता है तो तब मीडिया इसे प्रेम प्रसंग बताकर छोड़ देती है।

जब राजस्थान के जोधपुर में शम्भूलाल रेंगर अफराजुल की हत्या करता है तब मीडिया और सेकुलर दल देश को सिर पर उठा लेते है लेकिन जब दिल्ली के विकासपुरी में कुछ मुस्लिम युवको की भीड़ डॉक्टर नारंग को उनके घर से बाहर सड़क पर पीट-पीटकर मार डालती है तब ये कहा जाता है कि कृपया घटना को साम्प्रदायिक रंग देने का काम न करें।

मैं उस देश की बात कर रहा हूँ जिस देश का एक उपराष्ट्रपति अपना इस्तीफा देते हुए कहता है कि देश में मुसलमान सुरक्षित नहीं है। जब वह ऐसा कह रहे होते है उसी दौरान यूपी के इलाहाबाद में हिन्दू युवती हिना तलरेजा के साथ अदनान खान अपने दोस्तों के साथ मिलकर दोस्तों से हिना का गैंगरेप करवाता है उसके बाद उसकी गोली मारकर उसकी हत्या कर देता है।

हम थक गये है सुन-सुनकर की देश में मुसलमान सुरक्षित नहीं है मुसलमान खुद को डरा हुआ महसुस कर रहे है इसके बाद फिर खबर होती है कि दिल्ली में एक फोटो ग्राफर अंकित सक्सेना की कुछ मजहब विशेष के लोग सरेआम गला काटकर उसकी हत्या कर देते है। क्योंकि वह एक मुस्लिम लड़की से प्यार करता था। 23 साल के अंकित पर मजहबी हत्यारे उसकी जिंदगी पर मौत का शिकंजा कस देते है उसे गैर मजहब की लड़की से प्यार करने की सजा दे देते है। उसे दिल्ली में बीच सडक पर, तमाशबीन भीड़ के बीच मार डाला जाता यहाँ भी मजहबी चादर ओढ़ने वाले चंद शैतानों को अल्पसंख्यक बताकर यह कहा गया घटना में सांप्रदायिक तनाव फैलाने में काम न करें और इस हत्या को धर्म से न जोड़ें। एक भी सवाल यह न उठा कि इसे धर्म से क्यों न जोड़े?

आखिर क्यों इन बुद्धिजीवी लोगों को सिर्फ मुसलमान के मरने पर देश में असहिषुणता नजर आती है? अवार्ड वापसी इन्हें तब ही क्यों याद आती है? आप इन लोगों को समझिये, ये वे लोग है जो एक एजेंडे के तहत काम करते हैं। इन लोगों को अखलाक की हत्या नजर आती है, जुनैद की हत्या नजर आती है, मगर केरल में जब 26 वर्ष के सुजीत की हत्या दिन दहाड़े उसके बूढ़े माता-पिता की आंखों के सामने कर दी जाती तब सब खामोश होते है। 29 जनवरी, 2014 को देश की राजधानी दिल्ली में एक हत्या हुई। अरूणाचल प्रदेश के नीडो तानियाम को पहले नस्लवादी गाली दी गई फिर उसकी पीट-पीटकर हत्या कर दी गई. बैंगलोर में प्रशांत पुजारी और आगरा में अरूण माहौर की हत्या कर दी गई। मगर किसी पत्रकार को, किसी लेखक को देश में कोई असहिषुणता नजर नहीं आई। क्यों नहीं मार्च निकाला गया?  क्यों किसी ने कोई पुरस्कार वापिस नहीं किया?

जूनैद की हत्या का मामला हो या पहलू खान का इस तरह के अनेको मामले झूठे पाए जाते हैं और ख़बर पर एक छोटा सा डिस्क्लेमर डालकर न्यूज एजेन्सी अपना बचाव कर लेती है। जैसे ही ख़बर निकलती है सारे गैंग ऐक्टिव हो जाते हैं। बड़ी बिंदी गैंग, ब्रिगेड असहिष्णुता ब्रिगेड, दिल्ली के जन्तर-मंतर पर नोट इस माय नेम वाले वामपंथी, पोस्टर बैनर के साथ आप हिंदुओं का चीरहरण सुरु कर देते हैं आप डिफेन्सिव मॉड पर चले जाते हैं। या फिर उनके साथ ही तखती लेकर खड़े दिखाई देते हैं। वही इसके विपरीत यदि हत्या किसी हिंदू की होती है तो बचाव में कोई नहीं आता है न विरोध में कोई गैंग आता है हाँ यदि उसके नाम के सामने दलित चिपका दिया जाए तो जरूर कुछ कथित सामाजिक कार्यकर्ता गिद्ध बनकर लाशें नोचने पहुँच जाएँगे।

अब आप सोचेंगे की इससे क्या फर्क पड़ता है तो मैं आपको बता दूँ इससे इतना फर्क पड़ता है कि विदेशों में रहने वाले लाखों हिन्दुओं को शक की नजरों से देखा जाता है। अगर पहलू अखलाक पर बात होती है तो नारंग और चंदन गुप्ता पर भी हो अपराध बोध से बाहर निकलिए हर एक हत्या पर बात कीजिए। आरोपी का धर्म देखकर ही आप कुछ बोलते हैं। आखिर इन हत्यारों से इतनी हमदर्दी क्यों? इसलिए खुलकर बोलिए कि ध्रुव त्यागी की सिर्फ हत्या नहीं बल्कि मॉब लिंचिंग भी थी क्योंकि उन्हें 11 मजहबी उन्मादियों ने घेर कर मारा जिसमें 4 महिलाएं भी शामिल थीं।

विनय आर्य

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