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हिजाब का ये कैसा खेल ?

खबर है कि भारतीय शूटर हिना सिद्धू ने नौवीं एशियाई एयरगन शूटिंग चैंपियनशिप से अपना नाम वापस ले लिया है. ईरान में होने वाली इस चैंपियनशिप में हिजाब पहनने की अनिवार्यता के चलते हिना ने ये कदम उठाया है. यह प्रतियोगिता दिसंबर में ईरान की राजधानी तेहरान में होगी. इस भारतीय खिलाडी ने कहा है कि वो ऐसा करने वाली कोई क्रांतिकारी खिलाडी नहीं है, ले‍किन व्यक्तिगत रूप से उन्हें लगता है कि किसी खिलाड़ी के लिए हिजाब पहनना अनिवार्य करना खेल भावना के लिए ठीक नहीं है. एक खिलाड़ी होने का उन्हें गर्व है क्योंकि अलग-अलग संस्कृाति, पृष्ठभूमि, लिंग, विचारधारा और धर्म के लोग बिना किसी पूर्वाग्रह के एक दूसरे से खेलने के लिए आते हैं., खेल मानवीय प्रयासों और प्रदर्शन का प्रतिनिधित्व करता है. न की किसी धर्म का!
यदि यहीं पर रुख दूसरी खबर का करें तो चेचन्या की सरकार ने शादियों पर नजर रखने के लिए ख़ास अफसरों को तैनात करने का फैसला किया है. ये अफसर शादी के दौरान होने वाले अनुचित व्यवहार रोकेंगे. कार्यकारी संस्कृति मंत्री खोजा-बाऊदी दायेव ने कहा, विशेष कार्यकारी समूह सार्वजनिक जगहों में होने वाली सभी शादियों में शिरकत करेंगे. यदि पोशाकें और नृत्य की भंगिमाएं राष्ट्रीय रीति रिवाजों और इस्लामिक परंपराओं के ख़िलाफ हुईं तो शादी रोक दी जाएंगी.कई बार लगता है कि इस्लाम जीवन शैली से ज्यादा परम्पराओं में बसता है. या कहो पुरातन परम्पराओं के बचाव का नाम ही धर्म विशेष रह गया है? सब जानते है कि इस्लाम के मानने वालों की एक बहुत बड़ी तादाद कट्टरवादी नहीं है. वहीं कई कट्टरपंथी ऐसे भी हैं जिनका दूसरों का सिर धड़ से अलग करने के काम से कोई वास्ता नहीं है. इसके बावजूद, मुस्लिम सोच में एक ऐसी दिक़्क़त है जिसके बारे में बात करने से ज्यादातर मुस्लिम बचते हैं. ऐसा नहीं है कि ये सोच केवल मुसलमानों के भीतर ही है, लेकिन आजकल यह उनके बीच ख़ासतौर पर प्रचलित है. इस दिक़्क़त की एक पहचान यह है कि कई मुसलमान, यहाँ तक कि कुछ धर्मनिरपेक्ष मुस्लिम भी, मुस्लिम संस्कृति और समाज से जुड़ी हर चीज का बचाव करते हैं. इसके लिए आम तौर पर अपने गौरवशाली अतीत की दुहाई दी जाती है, साथ ही वर्तमान समय की परेशानियों के लिए किसी बड़े खलनायक को जिम्मेदार ठहराया जाता है.
जंग या बहस कोई भी हो विचारधारा को लेकर होती है और ताकतवर लोग हमेशा अपनी विचारधारा को बड़ा रखना चाहते है. इन्सान वैसे तो हमेशा वैचारिक स्वतंत्रता का पक्षधर रहा किन्तु समूह में आकर वो हमेशा उस समूह की विचारधारा की सम्मान करने की बात करता है क्योकि समूह हमेशा संगठन की गरिमा की बात करता है. कुछ समय पहले मैंने बीबीसी की एक रिपोर्ट में पढ़ा था कि फैशनेबल कपड़े पहनने पर एक फलस्तीनी लेखिका ने कुछ पश्चिमी देशों में बुर्क़ा पहनने के विरोध या उसपर प्रतिबंध की कोशिशों की आलोचना की थी. जबकि वो खुद बुर्का नहीं पहनती थी. लेकिन अपने कई अन्य बुर्क़ा न पहनने वाले साथियों की तरह उन्हें भी लगा कि अपने भाइयों के पक्ष में बोलना उनकी जिम्मेदारी है. उन्होंने तर्क दिया था कि पश्चिमी देश बिकनी पर क्यों नहीं प्रतिबंध लगाते, क्योंकि यह कहा जा सकता है कि बिकनी से भी महिलाओं की उसी तरह एक ख़ास छवि बनती है जैसी कि बुर्क़े से. भले भी उस लेखिका की नीयत अच्छी थी, लेकिन तर्क बुरा था. कोई भी पश्चिमी देश महिलाओं को बिकनी पहनने के लिए जबरदस्ती जोर नहीं डालता. आप पश्चिम में किसी भी समुद्र तट पर पूरे कपड़े पहनकर घूम सकते हैं! लेकिन कई इस्लामी देश, जैसे कि सऊदी अरब, बुर्का पहनने के लिए बाध्य करते हैं और इसे जबरदस्ती लागू करते हैं. मुझे लगता है कि मुसलमानों को अपने तर्कों और बहानों की पूरी ईमानदारी से जाँच करनी चाहिए.
मुस्लिम लेखिका अय्यान हिरसी कहती है कि जमाना तो बदला पर अभी भी इस्लाम में बहुत कुछ नहीं बदला वहीं आधुनिक विवाद की ऐतिहासक जड़ें, इस पुस्तक में लेखिका लैला अहमद कहती हैं इस्लाम में स्त्रीवाद व स्त्री कि ये आवरण प्रथा सर्वप्रथम ससानियन समाज में प्रचलित था जिसे लिंगभेद के लिये इस्तेमाल किया जाता था साथ ही इस आवरण का प्रयोग ईसाई समुदाय में मध्य पूर्व व मेडिटेरियन भागों में, इस्लाम के उदय के समय था. मोहम्मद के जीवनकाल में व उस काल के अंतिम समय में, सिर्फ उनकी पत्नियां वे मुस्लिम थी जो आवरण में रहती थी. उनकी मृत्यु के बाद और मुस्लिम समुदाय की स्थिति के अनुसार, उच्च वर्ग की महिलाएं आवरण में रहने लगी और धीरे धीरे ये मुस्लिम उच्च वर्ग की महिलाओं का प्रतीक बन गया. आवरण में या बुर्के में रहना, इसे जीवन में मोहम्मद द्वारा प्रचलित नही किया गया था वरन्‌ ये वहां पर पहले से मौजूद था. शायद इसका कारण वहां उड़ता रेत रहा हो. जिसे बाद में सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाने लगा था. जो कि अब बदलते समय में धार्मिक प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है. शायद मुस्लिम समाज में, अपनी प्रतिष्ठा व धन प्रदर्शन का मुद्‌दा बनाकर आवरण को ग्रहण करने की प्रथा धीरे धीरे मोहम्मद की पत्नियों को अपना आदर्श बनाकर आगे चल पड़ी.वरना हिजाब का कोई भी पर्यावाची बुर्के या पर्दे से नहीं बल्कि हिजाब का अर्थ सिर्फ शर्म बताया गया है.
सोमालिया की लेखिका इरशद मांझी ने कुछ समय पहले आक्सफोर्ड में मुस्लिम विद्यार्थियों, प्रोफेसरों तथा बुद्धिजीवियों से कहा था कि मुस्लिमों को धमकी और शिकायत का रवैया छोड़कर आत्म अवलोकन और खुले विचार- विमर्श पर उतरना चाहिए यदि मुसलमान भी अपनी ऐसी कमजोरी मान लें तो यह बड़ा रचनात्मक कदम होगा. यदि मुस्लिम समुदाय अपने वैचारिक स्त्रोतों के एकमात्र सत्य या त्रुटिहीन होने की जिद छोड़ दे तो उसमें विवेकशील चिंतन स्वत: आरंभ हो जाएगा जब तक मुसलमान अपनी जिद ठाने रहेंगे, समस्या बनी रहेगी जो इस्लाम के अथवा मानवता के हित में नहीं होगा. मुस्लिम समाज में सुधारों की आवाज उठाने में मुस्लिम महिलाएं आगे हैं-? पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि से लेकर ईरान, सऊदी अरब, यूरोप, अमेरिका तक सुधारवादी मुसलमानों के बीच निर्भीक स्वर स्त्रियों का ही है. यह इस्लामी रीति-रिवाजों में पुनर्विचार की जरूरत पर बल देता है. इसलिए अब तसलीमा नसरीन को अपवाद रूप में नहीं लिया जा सकता. उनकी तरह ही अय्यान हिरसी अली, वफा सुल्तान, फेहमिना दुर्रानी, इसरद मांझी, बसमा बिन सऊद आदि की आवाजें मुखर हो रही हैं. अब इन्हें अज्ञानी, इस्लाम विरोधी और अमेरिकी एजेंट कहकर झुठलाया नहीं जा सकता. बसमा तो स्वयं सऊदी राजपरिवार की हैं. आज नहीं तो कल मुस्लिम नेताओं, उलेमाओं और आलिमो को उन पर गंभीर विचार करना ही होगा। धमकी या हिंसा के बल पर या परम्पराओं के रखरखाव के लिए किसी को कब तक चुप किया जा सकता है? लेख राजीव चौधरी

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