श्री सन्तराम, बी.ए. आर्यसमाज के उच्च कोटि के विचारक एवं जातिभेद विषय के अधिकारिक विद्वान थे। आप ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के भक्त होने के साथ स्वामी श्रद्धानन्द जी के भक्त व सहयोगी थे। आपने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं जिनमें से एक ‘हमारा समाज’ नामक ग्रन्थ भी है। 282 पृष्ठीय इस ग्रन्थ के तृतीय संस्करण का प्रकाशन सन् 1987 में होशियारपुर के विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान ने किया है। इससे पूर्व सन् 1948 व 1957 में भी इस ग्रन्थ के दो संस्करण प्रकाशित हुए थे। इस पुस्तक को श्री सन्तराम जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी को समर्पित किया है। समर्पण करते हुए उन्होंने जो शब्द लिखे हैं वह हैं ‘अपने युग के सब से पहले और सब से बड़े जात– पांत–तोड़क महात्मा मुन्शीराम जी–स्वामी श्रद्धानन्द जी–की सेवा में—सन्तराम’। इस पुस्तक के पृष्ठ 7 से एक पैरा प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें जाति भेद का उल्लेख करते हुए वह कुछ महत्वपूर्ण बातें लिखते हैं।
वह लिखते हैं कि ‘(आर्यों व हिन्दुओं में) फूट और उपद्रव का कारण उतना धर्म या संप्रदाय नहीं जितना कि जातिभेद है। सिख ब्राह्मण, पौराणिक ब्राह्मण, आर्यसमाजी ब्राह्मण और देवसमाजी ब्राह्मण विविध धर्म–विश्वास रखते हुए भी एक दूसरे को आत्मीय समझते हैं, क्योंकि उनका परस्पर बेटी–व्यवहार (परिवारों के बीच विवाह सम्बन्ध) होता है। इसके विपरीत एक नाई आर्यसमाजी और दूसरा बनिया आर्यसमाजी धर्म–विश्वास से एक होते हुए भी आपस में बन्धुभाव का अनुभव नहीं करते, क्योंकि जातिभेद के कारण उनका आपस में बेटी–व्यवहार (विवाह–सम्बन्ध) नही। यदि जाति–भेद का पचड़ा न हो तो घर में कुरान और मुहम्मद का मानने वाला भी उसी प्रकार मुहम्मदी हिन्दू रह सके जैसे मूर्तिपूजक, निराकारवादी, शैव और शाक्त आदि सब हिन्दू हैं। देखिए, अकबर से लेकर औरंगजेब वरन् बहादुरशाह तक किसी भी मुगल सम्राट् का ख्षतना नहीं हुआ था। फिर भी वे मुसलमान कहलाते थे। मुगल वंश में यह अन्धविश्वास फैल रहा था कि खतना कराने से उनका राज्य नष्ट हो जाएगा। हुमायूं का खतना हुआ था, इसलिए उसे मारा–मारा फिरना पड़ा। मुगल–वंश में सबसे पहले बहादुरशाह के बड़े बेटे फखरुद्दीन का खतना हुआ था। इसके झट ही बाद सन् 1857 के विद्रोह में बहादुरशाह पकड़ा जाकर रंगून भेज दिया गया। इसी प्रकार शोलापुर की साली, लिंगायत और विष्णोई आदि अनेक जातियां अपने शव जलाती नहीं, गाड़ती हैं। फिर भी वे हिन्दू हैं। भारत की राष्ट्रीय एकता में हिन्दू सभा और मुसलिम लीग जैसी साम्प्रदायिक संस्थाएं उतनी बाधक नहीं, जितनी कि ब्राह्मण सभा, जाट सभा, और अग्रवाल सभा जैसी जाति–बिरादरी की सभाएं बाधक हैं।’
यह दुःख की बात है कि हिन्दुओं व आर्यसमाज के विद्वान तथा नेता इस जातिभेद रूपी महारोग के उपचार के विषय में कभी विचार नहीं करते। यह महारोग हमारे देश व समाज में न केवल बना हुआ है अपितु बढ़ता भी जा रहा है जिसके अनेक दुष्परिणाम समाज के समाने हैं। ऋषि दयानन्द और स्वामी श्रद्धानन्द जी ने इस रोग को दूर करने का प्रयास किया परन्तु वह पूर्ण सफल नहीं हुए। आज इस जातिभेद रूपी महारोग के उन्मूलन की हिन्दू और आर्य समाज को सर्वाधिक आवश्यकता है। मत व धर्म भेद के कारण भारत का विभाजन हुआ था तथापि वही समस्यायें आज भी उपस्थित हैं। जातिभेद के कारण देश की स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद अनेक दलित व पिछड़ी जातियों को आरक्षण देना पड़ा। आज भी आरक्षण पर अनेक प्रकार के बयान आते रहते हैं जिससे समाज व देश कमजोर हो रहा है। पिछले दिनों हम हरयाणा व गुजरात के जातिगत आन्दोलनों को देख ही चुके हैं। यह व ऐसे अन्य आन्दोलन फिर कब अपना सिर उठा लें, किसी को पता नहीं। आर्यसमाज ने गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित जिस वैदिक वर्णव्यवस्था का प्रचार किया था उसे भी देश व समाज समझ नहीं सका और वह भी आज एक प्रकार से हाशिये पर पड़ी है। हमें लगता है कि वेद प्रचार ही देश व समाज की सब समस्याओं का कारगर उपाय है। इसी से सब मत-मतान्तर व जातिभेद समाप्त होगा और सत्य मानव धर्म प्रतिष्ठित होगा। आर्यसमाज को वेदाज्ञा और ऋषि आज्ञा ‘‘वेद प्रचार” पर ही स्वयं को केन्द्रित रखना चाहिये। यही विश्व में सच्ची मानवता स्थापित करने का एकमात्र उपाय है। इत्योम् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य