सी राष्टन्न् को सशक्त एवं आत्म निर्भर बनाने का सर्वोत्तम उपाय-स्त्री-शिक्षा है। किसी राष्टन्न् की सशक्तता का प्रमाण हथियारों से लैस होना नहीं, बल्कि राष्टन्न् का नैतिक चरित्र है। कोई भी छुरी, बन्दूक, पिस्तौल आदि रखकर भी अपने आपको सुरक्षित नहीं कह सकता। अतः सात्विक वृतिया, आत्मनिष्ठा ही राष्टन्न् को सबल बना सकती हैं, यह मानना ही होगा।
प्रश्न यह है कि इस आत्मनिष्ठा का मूलस्रोत हमें कहा प्राप्त होगा? उत्तर भी स्पष्ट है कि परमेश्वर ने सृष्टि रचना कर प्रजा पालन का भार जिसको सर्वप्रथम सौंपा वही दिव्य शक्ति सम्पन्न नारी ही सन्तान को आत्मनिष्ठ एवं सुसंस्कारित बना सकती है। परमात्मा ने सबको उसकी क्षमतानुसार ही कार्य सौंपा है। इस प्रकार जिस नारी के कन्धों पर प्रजा पालन रूपी राष्टन्न्ीय गुरुतर भार हो उसे सुशिक्षित होने की आवश्यकता नहीं, यह प्रश्न ही कैसे उठ सकता है?
किन्तु बीच के काल में यही हुआ। नारियों को शिक्षा की कोई आवश्यकता नहीं। उनको बच्चे उत्पन्न करना और गृहकार्य करना ही धारणा बना ली गई। कहीं नौकरी तो करनी नहीं? यदि यह पढ़ जायेंगी तो ≈टपटांग चिट्ठियां लिखा करेंगी इत्यादि बातें कही जाने लगीं।
श्री शंकराचार्य जैसे प्रतिष्ठा प्राप्त धर्माचार्यों तक ने स्त्री के लिये बृहदारण्यकोपनिषद् के-
“अथ य इच्छेत् दुहिता मे पण्डिता जायेतfi ;बृह. 6/4/17द्ध
इस वाक्य के पण्डिता शब्द का भाष्य करते हुये लिखा-“दुहितुः पाण्डित्यं गृहतन्त्रविषयमेव वेदेनधिकारात्” अर्थात् कन्या को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं, अतः उसको पण्डिता बनाने का अर्थ है गृहस्थ के कार्यों की शिक्षा देना।
स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में तत्कालीन समाज एवं धर्माधिकारीयों के अत्यन्त हीन एवं तुच्छ विचार हो गये थे, इसलिए पण्डिता शब्द का मात्र गृहस्थ के कार्यों में शिक्षित होना अर्थ किया गया, यह प्रमाण ही पर्याप्त है।
परिणाम सामने आया – राष्टन्न् निर्बल हो गया। देश गुलाम होकर पिटा ही नहीं अपने गुलामी के जीवन से उसने खुशामद पसन्द होकर तादात्म्य भी स्थापित कर लिया। सत्यनिष्ठ आदि आचरण ऐतिहासिक कथायें मात्र बनकर रह गईं। अत्यन्त यातनाआं से गुजरने के पश्चात् देश का भाग्य जागा और रेस्ट्रोद्वारक ऋषि दयानन्द का उद्भव हुआ। उन्होंने अकाट्य प्रमाणों और युक्तियों के आधार पर यह सिह् कर दिया कि स्त्री शिक्षा आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। इस मध्ययुग के गिरे हुए काल से पूर्व की स्त्रिया प्रभूत विद्या-सम्पन्न हुआ करती थीं। गार्गी, मैत्रेयी, अपाला, घोषा आदि ब्र२वादिनी ऋषिकायें इसकी प्रमाण हैं। इतना ही नहीं, वेद पढ़ने का अधिकार स्त्रियों को न देने वाले श्री शंकराचार्य के समक्ष मण्डनमिश्र के हार जाने पर स्वयं उनकी पत्नी विदुषी भारती शास्त्रार्थ के लिये डटी थीं। तब शंकराचार्य के लिये भारती से पीछा छुड़ाना मुश्किल हो गया और वह कह उठे-
यदवादि वादकलहोत्सुकतां, प्रतिपद्यते ह्रदयमित्यबले। तदसाम्प्रतं नहि महायशसो, महिलाजनेन कथयन्ति कथाम्।।
(शंकरदिग्विजय सर्ग 9/59)
अर्थात् हे अबले! तुम मुझसे शास्त्रार्थ करना चाहती हो किन्तु यशस्वी पुरुष महिलाओं के साथ शास्त्रार्थ नहीं करते। भारती भी सहज में उन्हें छोड़ने वाली नहीं थीं, उसने कहा-
अत एव भाग्र्यभिधया कलह, सह याज्ञवल्क्यमुनिराडकरोत्। जनकस्तथा सुलभया∑बलया, किममी भवन्ति न यशोनिधयः।।
(सर्ग 9/61)
अर्थात् शंकराचार्य जी! आपको अपने पक्ष की रक्षा के लिये शास्त्रार्थ करना ही होगा। क्या गार्गी के साथ याज्ञवल्क्य ने तथा सुलभा के साथ जनक ने शास्त्रार्थ नहीं किया था। क्या वे यशस्वी पुरुष नहीं थे।
इन सभी ऐतिहासिक तथ्यों का उद्घाटन करते हुये ऋषि दयानन्द ने वेद पठनादि अपने अधिकारों से च्युत नारी को समस्त अधिकारों से युक्त कराया। महर्षि दयानन्द ने वह करके दिखाया जो आज तक बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान् एवं सुधारक नहीं कर सके थे। इधर देश में स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए शांति की लहर को दौड़ाने वाले कुछ राष्टन्न्नायकों ने भी अनुभव किया कि यह शांतिरूपी अनुष्ठान हमारा तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक नारियों का पवित्र योगदान इसमें न हो, अतः उन्होंने भी रुढि़ग्रस्तताओं को छोड़कर स्वतन्त्रता यज्ञ में भाग लेने के लिये उनका आ५ान किया। यह नारी की असीम क्षमता और साहस का ही परिचायक कहा जा सकता है कि वह युगों-युगों तक दासता की बेडि़यों में जकड़े होते हुये भी अपना आ५ान सुनते ही सजग हो उठी और वह इस यज्ञ में भी पीछे न रही। ऐसा अदम्य साहस की प्रतिमूर्ति अदिति स्वरूपा नारी को शिक्षा का अधिकार नहीं या वेद पढ़ने का अधिकार नहीं, यह कहते हुये जब आज भी मैं दकियानूसी पण्डितों के मुख से सुनती हू तो यही कहना पड़ता है कि ये पण्डित होकर भी दिवान्ध ही हैं।
वेदों में माता के कर्तव्यों के विशद वर्णन आते हैं। ऋग्वेद मैं, 4 सू. 18 मं. में कहा है कि ‘सूर्यसम तेजस्विनी माता’ सन्तान की गुहाद्रबुह्में प्रक्रम को प्रविष्ट कराये, दुष्टाचरणों को दूर करे। इसी सूक्त के प्रथम मन्त्र में सन्तानों को उपदेश दिया गया है कि चाहे कुछ भी हो जाये वे अपनी माता का अपमान कभी न करे। माता शब्द बड़ा प्रिय है, इसकी महिमा अपार है। यह राष्टन्न् निर्माण का मेरुदण्ड है। माता के द्वारा दिये हुए संस्कारों का सन्तान के जीवन पर कितना गहरा प्रभाव पड़ता है यह महापुरुषों की जीवनियों को देखकर सहज ही जाना जा सकता है। इन तथ्यां को देखते हुये यह कहने में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि पुत्री, जिसे आगे चलकर सुयोग्य पत्नी एवं माता का रूप धारण करना है अथवा विरक्तवृŸिा धारण कर भी समाज को लोक देना है उसका गठन एक प्रकार के विशेष संस्कारों के साचे में ढालकर करना ही होगा। जिस भवन को विशाल एवं दृढ़ बनाना है उसकी नींव पक्की करनी ही होगी, इसलिये ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में नारी शिक्षा पर इतना बल दिया है।
आज कुछ लोग नारी जागरण के नाम पर पुरुषों के समान अधिकार की बड़ी पुकार करते हैं। जिस प्रकार साम्यवाद का अर्थ यह करना कि समाज हित की दृष्टि से बुह्बिल के भिन्न-भिन्न होते हुए भी समान वितरण व्यवस्था की जाय’ यह गलत होगा, उसी प्रकार स्त्री पुरुष में भेद होते हुए भी पुरुषों के समान नारियों को अधिकार मिले, इसका यह तात्पर्य लगाना कि नारियों का पुरुषीकरण कर दिया जाये, गलत होगा। जिस प्रकार साम्यवाद का अर्थ यह उचित होगा कि आवश्यकतानुसार प्रत्येक को उपभोग वस्तु सुलभ कराई जाये उसी प्रकार समानाधिकार की माग करने वालों को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि नारी के कर्तव्य और मर्यादायें भिन्न हैं तथा पुरुष के भिन्न हैं, अतः उसी अनुरूप प्रत्येक को अपना प्राप्तव्य मिलना चाहिये। समान अधिकार का मतलब रहन-सहन, उठने-बैठने, पहरावे उठावे में उनका एकीकरण कर देना नहीं है बल्कि विद्या अर्जन करने, संन्यास वानप्रस्थादि प्रत्येक आश्रमों में प्रवेश करने, विचारों के आदान प्रदानादि में स्त्रियों का भी पूरा-पूरा अधिकार होगा है। यह न भूलना चाहिए कि समान अधिकार से तात्पर्य यदि पुरुष के बराबर प्रतिष्ठा या महिमा प्राप्त करना लिया जाये तो वेदों में तो नारी
को पुरुष के समान क्या पुरुषों से भी कहीं अधिक महिमामय कहा है। नारी के ब्रह्मा जैसे उत्तम विशेषणों तक
विभूषित किया गया है। आज सहशिक्षादि का ऐसा बुरा प्रभाव नारियों पर पड़ता जा रहा है कि उनके रहन-सहन, वेश-विन्यास सब बदलते जा रहे हैं। आज राह चलते पुरुष और स्त्री में कोट-पैन्टादि वेश एवं केश कर्तनादि सभी समान होने के कारण यह परिचय प्राप्त करना कि इसमें कौन सी स्त्री एवं कौन पुरुष है, कठिन हो गया है। निर्लज्जता एवं घृष्टता अब आखों में समाकर अंग-अंग को आपूरित करती जा रही है। गौरव पूर्ण मातृत्व की न चाह है न उत्कण्ठा ही। कई जगह तो ठगी लूट और मक्कारी करती हुई स्त्रियां भी पकड़ी जा रही हैं और गौरवशाली भारत के समक्ष यह प्रश्न तीव्रतर होकर उभरता जा रहा है कि क्या यह नारी भारत की दुर्गा और सीता का प्रतिमान है? ऐे बूढ़े भारत! तूने इस देश की नारी के उस चरित्रबल को भी देखा है, जब राजपूतानियों ने परपुरुष के द्वारा कुदृष्टि से हाथ तक का स्पर्श किये जाने पर उस हाथ को यह कहकर तीव्र दुधारी से काट दिया था कि यह हाथ अब पति सेवा के योग्य नहीं रहा। तूने सीता माता की पवित्रता एवं आत्मबल तथा सभा को ध्ार्षित करने वाला शकुन्तला का तेज तथा प˘िनी का जौहर व्रत भी देखा हैऋ पर आज यह सब क्यों स्वप्न होता जा रहा है? नारी उस सरणी की अनुगामिनी क्यों बनती जा रही है जिसकी कोई कगार नहीं, यह चिन्तनीय विषय है।
संक्षेप में इसका कारण हमारी पाश्चात्य कुशिक्षा ही है, जिसके हम अनुगामी बिना सोचे समझे हो रहे हैं। हमें अपनी वैदिक पह्तियों को अपनाना होगा। घर-घर में उसका प्रचार और प्रसार करना होगा। फैशनपरस्ती की बाढ़ को रोककर मनुष्य के आत्मिक ढाचे को सुपुष्ट बनाना होगा। समय रहते ऐसी वैदिक मर्यादा सम्पन्न शिक्षा को बड़े यत्न से नारियों में पुनः विकसित करने की आवश्यकता है अन्यथा शिक्षा का मूल उद्देश्य हमसे बहुत दूर निकल जायेगा और हमें आसू बहाने पड़ेंगे।