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दीक्षान्त समारोह में नव स्नातकों को स्वामी श्रद्धानन्द का सन्देश

भारत  की पवित्र भूमि पर अनके महापुरषों ने – जन्म लिया जिन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से संसार का पथ आलोकित किया। महापुरुषों की इस परम्परा में अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। पंजाब के जिला जालंधर  में सन् 1856 को जन्मे बालक मुंशीराम  को स्वामी श्रद्धानन्द बनाने का पूरा श्रेय महर्षि दयानन्द को दिया जाता है क्योंकि महर्षि दयानन्द से सम्पर्क के पहले मुंशीराम का व्यक्तिगत जीवन सामाजिक प्रभावों के कारण अनेक दुर्गुणों और दुव्यसनों  से भरपूर था, किन्तु सन् 1882 ई. में बरेली आगमन पर महर्षि दयानन्द से भेंट  होने के उपरान्त प्रथम दर्शन से ही उनकी जीवन-दिशा बदल गई और वे महर्षि दयानन्द के आदर्शों के प्रति समर्पित हो गए। जीवन भर  के सिद्धांतो  ने उन्हें बल दिया और वे निरन्तर कल्याण मार्ग की ओर अग्रसर होने लगे। 12 अप्रैल, 1917 को मुंशीराम जी ने सन्यास ग्रहण किया। संन्यास दीक्षा लेते हुए वे कहते हैं- श्रद्धा से प्रेरित होकर ही आज तक के इस जीवन को मैंने पूरा किया है। श्रद्धा मेरे जीवन की आराध्य देवी है, अब भी श्रद्धाभाव से प्रेरित होकर ही सन्यास आश्रम में प्रवेश कर रहा हूँ। इसलिए इस यज्ञकुण्ड की अग्नि को साक्षी रखकर मैं अपना नाम ‘श्रद्धानन्द’ रखता हूँ जिससे मैं अगला सब जीवन भी श्रद्धामय बनाने में सफल हो सकूँ । महर्षि दयानन्द के सपनों को साकार करने के लिए स्वामी श्रद्धानन्द ने अनेक क्षेत्रों में कार्य किया। उनका हरकार्य प्रेरणास्पद और क्रान्तिकारी रहा है। गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली के वे सूत्रधार रहे हैं। शिक्षा के क्षेत्र में हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना उनका क्रान्तिकारी कार्य कहा जा सकता है। उनके राष्ट्रभक्त नवयुवकों का निर्माण गुरुकुलीय शिक्षा प्रसिद्धि ने किया। सन् 1913 को नव स्नातक को दिया गया उनका उपदेश शिक्षा के मन्तव्य को स्पष्ट करता है-

पुत्रों! आज मुझे इतनी प्रसन्नता है कि तुम उसका अनुभव नहीं कर सकते। मुझे अपने जीवन में जिस बात के देखने की आशा नहीं थी, उसे मैंने देख लिया। यदि आज मेरे प्राण भी चलने को तैयार हों, तो मैं बड़ी खुशी से उन्हें आज्ञा दे सकता हूँ  इस आनन्द का कारण मैं बताना निरर्थक समझता हूँ तुममें से प्रत्येक उसे अनुभव कर रहा है। लोगसमझा करते थे कि हम दिमागों को परतंत्र बनाना चाहते हैं, परन्तु अब लोग देख रहे हैं कि यदि कोई ऐसा स्थान है जहाँ  स्वतन्त्रता नहीं रुक सकती तो वह यही स्थान है। मेरा अपने ब्रह्मचारियों  को केवल एक ही उपदेश है मत देखो कि लोग तुम्हें क्या कहते हैं, सत्य की दृढ़ता को पकड़ो। सारे संसार का सत्य ही आधार है। यदि तुम्हारा मन, वचन और कर्म सत्यमय है, तो समझो कि तुम्हारा उद्देश्य पूरा हो गया। प्रसिद्धि के पीछे भागकर कोई काम मत करो। प्रसिद्धि के पीछे भागने से किसी की प्रसिद्धि नहीं हुई। अपने सामने एक उद्देश्य रख लो, उसी में लग जाओ, फिर गिरावट असम्भव है’ उपदेशक बनो या मत बनो, पर एक बात याद रखो, बनावटी मत बनो। सबको परमात्मा वाणी की शक्ति या उपदेश देने की शक्ति नही देता। वाणी न हो, न सही किन्तु आचरण सत्यमय हो। नट न बनो, न इस संसार को नाट्यशाला बनाओ। स्वच्छ जीवन रक्खो। यदि इस प्रकार का स्नातकों का आचरण होगा तो मेरा पूरा संतोष है। स्वामी श्रद्धानन्द का यह दीक्षान्त भाषण आज भी विद्यार्थियों के लिए प्रासंगिक है।

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