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नवधा भक्ति का रूप है संध्या

सप्तम क्रिया उपस्थान मंत्रा: – १ 

  प्रभु के संग में

             प्रभु के मार्ग को कौन नहीं चाहता? अर्थात् इस जगत् के सब लोग उस प्रभु से मिलना चाहते हैं, सब लोग उसके समीप जाना चाहते हैं और उस के समीप जाकर आसन लगाकर उसे स्मरण करना चाहते हैं, उसका स्तुति का गान करना चाहते हैं। प्रभु दर्शन के लिए विद्वानों से हमें मार्ग – दर्शन पाना होता है।  इस कारण उस प्रभु का नाम सूर्य है। इस निमित्त हम प्रतिदिन के दोनों काल संध्या के उपस्थान मन्त्रों में, जिसे नवधा भक्ति की सप्तम क्रिया के रूप में भी जाना गया है, उस पिता को स्मरण करना आरम्भ इस प्रकार करते हैं:-
 ओउम् उद्वयं तमसस्परि स्व: पश्यंत उत्तरम् |

देवं देवत्रा सुर्य्यमगन्म ज्योतिरुतामम् || १ || यजुर्वेद ३५.१४ ||

प्रभु के आगमन के संकेत

 जब-जब मौसम करवट लेता है तब-तब हमें प्रभु की उपस्थिति का स्मरण हो आता है। आज भी कुछ एसा ही हो रहा है। मैं जब अपने चारों ऑर दृष्टि दौडाता हूँ तो मुझे ऐसा लगता है कि मेरे हृदय रूपि आँगन में वसंत ऋतु ने आकर अपनी आहट दे दी है। मेरी अन्त: -बगीची में अठखेलियीं कर रहे वृक्षों और पौधों की प्रत्येक डाली पर अत्यंत सुकोमल तथा हरे-भरे नवपल्लव फूटकर दिखाई देने लगे हैं। आज अनेक प्रकार के कुसुम कुसुमित हो गए हैं और इन पर सुन्दर-सुन्दर भ्रमरों की गुंजार की ध्वनी सुनकर आनंद का अनुभव हो रहा है। चारों और कुसुमित हो चुके पुष्पों की आनंदमयी सुरभि से मेरे हृदय का कमल खिला जा रहा है। इन फल से लदे वृक्षों तथा पुष्पित पौधों पर कोकिलों की कहूँ-कहूँ के राग से भरी पवन मेरे अन्दर के वातावरण में एक विचित्र से प्रकार की मादकता पैदा कर रही है। हे देवों के देव प्रभु! इस सब से आप के आगमन की शुभ सूचना मुझे स्वयमेव ही मिल रही है।

 कठोर साधना से प्रभु प्राप्ति संभव

  हे परमपिता ! आप सदा स्वर्ण -रथ पर ही भ्रमण करते अनुभव होते हो ( क्योंकि सूर्य रूपि भगवान् चारों और से स्वर्णिम लाली के साथ घिरा रहता है ) । अब मेरे कानों में आप के दूर से आते हुए स्वर्णमयी तथा समुज्ज्वल रथ के आने की मंद–मंद ध्वनी के स्वर पड़ने लगे हैं। इन स्वरों को सुनकर मेरे भाग्य जाग उठे हैं। हे पिता! आप के दर्शन मात्र के लिए चिरकाल से मैं पर्वतों की गहरी खाइयों में, घाटियों में, इन की चोटियों पर, घूमता फिर रहा हूँ। जिन जिन प्रदेशों में अथवा जिन-जिन जंगलों में चलने के लिए कोई मार्ग ही नहीं होता, एसे पथहीन दुर्जन क्षेत्रों में मैं भटक रहा हूँ। इतने से ही बस नहीं आप को पाने के लिए अनेक गिरी–कंदराओं में भी भटका हूँ, इन पर चढ़ता और इन्हें लांघता रहा हूँ। आप की उपासना को पाने के लिए मैंने एक लम्बे समय तक दीर्घ यात्रा की है, कठोर साधना की है, यह सब यात्राएं और साधनाएँ प्रभु! आप ही के आशीर्वाद से आज सफल होती दिखाई देने लगी हैं।

प्रभु पाने के लिए हृदय के अन्दर प्रकाश करो

प्रभु! इस संसार का प्रत्येक प्राणी जानता है कि सब और से बंद पड़े भवन में, आप ( सूर्य ) की सुनहरी किरणें कभी प्रवेश्नाहिंकर सकतीं। हे ज्योति के पुंज प्रभु! आप की सुनहरी किरणों में मेरी स्नान करने की उत्कट इच्छा है और इस इच्छा की पूर्ति के लिए इस मन की अन्धकार से भरी हुई कोठरी से निकलना मेरे लिए आवश्यक हो गया है।

सात्विक वृत्तियों से आत्मज्योति के दर्शन

हमारी ज्श्रीर के सुल्ह्भोग को ही हमारी पार्थिव अभिलाषाएं सब कुछ समझ लेती हैं। इस  सुख-भोग को पाने के लिए हम लोग सत्य तथा दूसरों के हितों को, दूसरों के सुखों आदि को कुचलने में, उन्हें नष्ट करने में हिचकते नहीं। इस प्रकार की सोच को तामसिक वित्तियों के परिणाम के रूप में जाना जाता है क्योंकि यह हमारे हृदय को अन्धकार से भर देती हैं। यह जो तामसिक वृत्त्यान हैं, विनाश का कारण होती हैं किन्तु जब व्यक्ति इन वित्तियों से ज्यों – ज्यों ऊपर उठता है तथा अपने हृदय को स्वार्थ से रहित कर देता है तथा अपने आप को सात्विक वृत्तियों वाला बनाता चला जाता है त्यों-त्यों  उसे एक विशुद्ध से भी विशुद्धतर आत्म ज्योति से जगमगाता हुआ प्रकाश दिखाई देने लगता है।

आत्मदर्शन से मिला आनंद अवर्णनीय

  परमपिता परमात्मा ने इस पृथिवी से लेकर द्युलोक तक पहुँचने के लिए अनेक प्रकार की दिव्य शक्तियों तथा दिव्य विभूतियों से हमारी अंतरात्मा को विभूषित कर रखा है। जब हम परमात्मा की इन शक्तियों तथा इन विभूतियों को अनुभव करते हुए इनके दर्शन करते हैं तो इसे ही आत्म–दर्शन कहा जाता है। इस दर्शन से जिस प्रकार हमारा हृदय आदमी उतसाह तथा अद्वितीय आनंद से उछालने लगता है, लबालब भर जाता है, इस सब का हम कभी अपनियो वाणी से वर्णन नहीं कर सकते।

 उत्कृष्ट ज्ञान से प्रकाश

इस प्रकार कठोर परिश्रम से हमने आत्म –साक्षात्कार कर लिया। अब यह प्राणी उर्ध्वा दिशा में आ गया है। इसके पश्चात् अत्यधिक उत्साही होकर तथा आनंद से विभोर होता हुआ यह साधक द्युलोक पहुंच जाता है। हे देवों के देव प्रभु! यह द्युलोक ही आपके लिए खेल का मैदान है, यही आप की क्रीडा-स्थली है। यहाँ जो भी प्राणी पहुंच जाता है, वह आपके विशुद्ध वेद ज्ञान से आलौकित हो उठाता है तथा उसके सब पार्थिव रोगों की समाप्ति हो जाती है। इस साधक के अंत:करण का प्रत्येक कोना आप की सब से उत्कृष्ट ज्ञान रूपि ज्योति से जगमगा उठता है।

        जगत् के सब प्रकाश आप ही से प्रकाशित

हे ज्योतियों के भंडारी देव! जब हम आप की क्रिडा-स्थली अर्थात् द्युलोक में पहुँच जाते हैं तो वहां पहुंचने पर हमें इस बात का ज्ञान हो जाता है कि आप ही देवों के देव हो। देवों के देव होने के नाते आप ही समग्र विश्व में व्याप्त हो। जितने भी प्रकार के प्रकाश हैं यथा-सूर्य का प्रकाश,चन्द्र की चाँदनी, तारों की झिलमिलाहट,  विद्युत की चमक, उषा की झलक , संध्याकाल की स्वर्णमयी आभा, इन सब में आप ही के दिए दिव्य प्रकश की ज्योति जगमगा रही है। आप से ही प्राप्त प्रकाश से जगत् के यह सब अवयव और समग्र जगत् जगमगा रहा है।

प्रभु के प्रकाश सानंद

  पृथिवी के सम्बन्ध में तो हमने जान लिया कि जितनी भी प्रकार के प्रकाश इस पृथिवी पर हैं, वह सब आप ही के दिए हुए प्रकाश से प्रकाशित हैं किन्तु हम यह भी जानते हैं कि पृथिवी के अतिरिक्त प्राणी मात्र में भी हमें जहाँ कहीं दिव्यता दिखाई देती है, प्रकाश दिखाई देता है, वह सब भी आप ही के तेजोमयी प्रकाश का ही अंश है। हम ने देख लिया कि मातृ – हृदय की ममता में, पिता के वात्साल्य में, वीरों की विजय में, पुण्य आत्माओं की बुद्धि में, साधुओं का संतोष, तेजस्वी व्यक्तियों का तेज, संत लोगों का सात्विक व्यवहार, सुकृत-जनों का कीर्ति में, मेधावी लोगों के मेधा बुद्धि, महात्मा लोगों की महिमा तथा यति लोगों का संयम, यह सब आप ही की विभुति के रूप में है। आप की विभुति के बिना कुछ भी संभव नहीं, आपके दिए प्रकाश का ही यह सब परिणाम है। सब और आप ही के मनोभावन दर्शन दिखने से कितना अपूर्व आनंद का हम लोग अनुभव करते हैं?
प्रभु आशीर्वाद से हम छोटे प्रभु बनें

हे ज्योति स्वरूप प्रभो! साधकों के हृदयों में ज्ञान की ज्योति जगाने वाले तथा उन्हें उत्तम मार्ग पर प्रेरित करने वाले होने के कारण प्रभु! हमने दिन भर के अपने सब कार्य पूर्ण कर लिए हैं, अब संध्या का समय है। संध्या के इस समय में आप हमें अपने समीप बैठने देने की स्वीकृति दें, सब प्रकार की ज्योतियों से चमकने वाले अपने रुप को, हमें अपने समीप बैठा कर निहारने दें। आपको निहारने से हमारा अंग-अंग पुलकित हो जाता है अत: इसके लिए हमें अवसर दें। प्रत्येक पदार्थ और प्रत्येक प्राणी में ऐश्वर्य और शक्ति को लाने वाला आप का यह ज्योतिर्मय रूप जितना-जितना भी हमारी आँखों तथा हमारी आत्मा में समा जाता है, उतना-उतना ही हमारा आत्मा अल्पज्ञता को छोड़कर बड़ी बनने लगती है। हम सदा आप सरीखे बनना चाहते हैं और एसा करने से हम आपके निकट ही नहीं पहुंचते अपितु आपके सदृश कुछ अंशों तक बन भी जाते हैं।

डा. अशोक आर्य

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