पशु केवल नेत्रों से देखता है-पश्यतीति पशुः। वह विचार नहीं कर सकता। मनुष्य विचारपूर्वक देखता है तथा करता है-मत्वा कर्माणि सीव्यति’ ऋषि बिना नेत्रों के ही अत्रः प्रज्ञा से देखता है। इसीलिए यास्क मुनि कहते है- ऋषिदर्शनात्। यहां दर्शन का अर्थ दिव्य दृष्टि ही है, सामान्य देखना नहीं, सामान्य रूप में तो सभी देखते हैं। दिव्य दृष्टि केवल ऋषि में होती है। दयानन्द ऐसे ही दिव्य दृष्टि सम्पन्न ऋषि थे, जिन्होंने प्रत्यक्ष के विषय में तो बहुत कुछ कहा है कि साथ ही ऐसे परोक्ष के विषय में भी कहा जहां पर सामान्य मानव की बुद्धि नहीं जा सकती। महर्षि दयानन्द ने कुछ ऐसी बाते कहीं जो उस समय कल्पित तथा उपहासास्पद प्रतीत होती थी। उन पर उस समय विश्वास करना इसलिए भी कठिन था क्योंकि विज्ञान भी तब तक वहां नहीं पहुंचा था। दयानन्द ने उन तथ्यों को अपनी ऋतम्भरा प्रज्ञा से देखा तथा उनके विषय में दृढ़तापूर्वक घोषणाएं की। ऋषि ही भूत तथा भविष्य के गर्भ में छिपे रहस्यों को भी प्रत्यक्ष की भांति ही देखता है। इस विषय में भ्रतहरी कहते हे-
आविर्भूतप्रकाशानामनुप्लुतचेत साम्।अतीतानामत ज्ञानं प्रत्यआन्न विशिष्यते।।
अर्थात् जिन्हें ज्ञान प्रकाश प्राप्त हो गया है, ऐसे तपस्वी ज्ञानियों को वर्तमान के समान ही भूत तथा भविष्य का भी प्रत्यक्ष हो जाता है। ऋषि दयनन्द ऐसे ही तपस्वी, योगी तथा दिव्य दृष्टि सम्पन्न ज्ञानी थे कि उनकी उस समय की अविश्वसनीय घोषणाएं आज विज्ञान द्वारा सिह् की जा रही है यथा-
1. महर्षि ने कहा कि पृथिवी के समान अन्य ग्रहों पर भी सृष्टि है। उस समय यह बात सर्वथा नयी तथा चैकाने
वाली थी, किन्तु आज विज्ञान ने इस बात को सिह् कर दिया है। सिद्धांत रूप में यह मान ही लिया गया कि पृथिवी के अतिरिक्त अन्य ग्रहों पर भी निवास योग्य वातावरण है या रहा होगा तथा वहां अभी भी बसा जा सकता है। दयानन्द ने किस आधार पर इस बात को कहा था जिसका प्रत्यक्षी करण आज वैज्ञानिक अरबों- खरबों रुपया लगाकर कर रहे हैं।
2. आदि मानव कहां तथा किस रूप में उत्पन्न हुआ, यह गहनतम् प्रश्न है तथा इतिहास- पुरातत्व, विज्ञान आदि सभीविद्याओं की अपेक्षा रखता है महर्षि ने स्पष्ट रूप में लिखा कि आदि सृष्टि त्रिविष्टप अर्थात् तिब्बत पर हुयी तथा भूमि के अन्दर से ही वनस्पतियों की भांति युवा वर्ग उत्पन्न होकर बाहर आया। यह अमैथुनी सृष्टि थी। आज तिब्बत अतिशीत प्रधान है किन्तु वैज्ञानिक भी स्वीकार करते है कि सृष्टि के आरम्भ में वहां की जलवायु ऐसी न थी। अतः वह परदेश प्राणियों के निवासार्थ उपयुक्त था। आज परखनली से सन्तानोपत्ती करके वैज्ञानिकों ने यह भी सिह् कर दिया कि सन्तानोपत्ती के लिए माता-पिता का संयोग होना आवश्यक नहीं है। इसके लिए रजस् तथा शत्रु चाहिए। प्राणियों में वह भोजन द्वारा बनता है। भोजन वनस्पतिय तथा औषधियों से आता है। सृष्टि के आरम्भ में पृथिवी के गर्भ में भी यह कार्य वनस्पतियों तथा औषधियों के द्वारा प्राकृतिक नियमों के अनुसार किया जा रहा था। आज डार्विन का सृष्टि रचना का सिह्ान्त अनेक आक्षेपों को झेल रहा है तथा असम्बह् प्रतीत होने लगा है। ऐसे में महर्षि का उक्त सिद्धातं माननीय है।
3. महर्षि के समय तथा दौर्भाग्य से अभी भी कहीं-कहीं स्कूलों में पढ़ाया जाता है कि आर्य भारत में बाहर से आक्रांता के रूप में आये तथा लड़कर द्रविडों को दक्षिण में धकेल दिया। महर्षि ने सर्वप्रथम घोषणा की कि किसी भी संस्कृत ग्रन्थ में नहीं लिखा कि आर्य बाहर से आये। आर्य यहीं के मूल निवासी हैं तथा इस देश का
प्राचीन नाम आर्यावर्त है। अब तो इतिहासज्ञ भी मानने लगे हैं कि आर्य इसी देश के मूल निवासी हैं।
4. वेदों के विषय में भी तब मिथ्या धारणा बना ली गयी थी कि वेद सामान्य जंगली लोगों की रचनाएं है, उनमें संसार के लोगों का इतिहास तथा नाम है। महर्षि ने इसे उलटते हुए साहसपूर्वक कहा कि वेद सभी सत्य विद्याओं की पुस्तक है, जिनका प्रादुर्भाव सृष्टि के आरम्भ में ही हुआ था। यह तथ्य भी आज सर्वमान्य हो चुका।
5. महर्षि ने यह भी घोषणा की थी कि यदि उन्हें साधन उपलब्ध कराये जाएं तो वे विमान बनाकर उड़ा सकते है। जिसने विज्ञान तो क्या अन्य आधुनिक विषयों की शिक्षा भी प्राप्त न की हो, उसकी यह घोषणा आश्चर्य से कम नहीं थी। वह भी उस समय जबकि पाश्चात्य जगत् विमान का नाम तक भी नहीं जानता था। इन सबके द्वारा स्वतः सिह् है कि महर्षि दयानन्द दिव्य दृष्टि सम्पन्न ऋषि थे। उनकी यही दिव्य दृष्टि शिवरात्रि की रात्रि को शिव मन्दिर में प्रकट हुयी थी।