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राजनीति में कौन किसका..?

सभी प्रमुख समाचार पत्रों की खबर तो यह थी कि शिव सेना, कांग्रेस एनसीपी गठबंधन पूरा उद्वव ठाकरे बनेगे मुख्यमंत्री। किन्तु अचानक मोबाइल पर न्यूज चैनल का नोटिफिकेशन आया कि महाराष्ट्र में बड़ा उलटफेर, फडणवीस सीएम और अजीत पवार बने डिप्टी सीएम। एक हफ्ता पहले नितिन गडकरी का वो बयान सुना होगा जब उन्होंने कहा था कि क्रिकेट और राजनीति में कुछ भी हो सकता है, कभी-कभी लगता है कि आप मैच हार रहे हैं लेकिन नतीजे बिल्कुल इसके विपरीत आते हैं। इस बयान से आप बखूबी समझ सकते है कि जो राजनीति उसूलों व विचारधारा पर आधारित थी लेकिन अब उसमें न तो उसूल हैं और न ही विचारधारा। राजनीति में अवसरवादिता का अड्डा व षड्यंत्रों का दौर है। इसमें टिके रहने के लिए नेताओं को एक दूसरे के आगे नतमस्तक होना पड़ता है।

पिछले महीने हरियाणा में चुनाव सम्पन्न हुए जजपा और भाजपा विचारधारा और मुद्दों को लेकर आमने सामने की लड़ाई लड़ रही थी। लेकिन जैसे ही चुनाव सम्पन्न हुए दोनों ने एक दूसरे का राज्यभिषेक किया और इस गठबंधन को हरियाणा और देशहित में बताया गया।

सत्ता का खेल ही कुछ ऐसा है अगर इसे नेताओं की लीला भी कहे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। क्योंकि विचारधारा के विरोधी कुर्सी के लिए कब एक हो जाये पता ही नहीं चलता। एक समय था जब उत्तर प्रदेश में बसपा के समर्थक सपा के खिलाफ नारे लगाते थे कि चढ़ गुंडों की छाती पर मोहर लगेगी हाथी पर लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा के कार्यकर्ता लाल टोपी में बसपा का झंडा लिए बहन कुमारी मायावती की जय बोल रहे थे। तो नीली टोपी ओढ़े सपा महिला कार्यकर्ता सपा के झंडे के साथ मायावती और अखिलेश की जय बोल रही थीं।

असल में देश में अभी भी एक बहुत बड़ा तबका समझता है कि नेता उनकी लड़ाई लड़ रहे है वह मुद्दों के लिए समझोता नहीं करते, उनके मतदाताओं की जनभावना उनके लिए सर्वोपरी है लेकिन जनता को समझना होगा कि यदि सत्ता सर्वोपरी है तो मुद्दे और विचारधारा ताक पर रखे जा सकते है।

पिछले जम्मू कश्मीर चुनाव में पीडीपी और भाजपा एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ी। जहाँ पीडीपी ने भाजपा को साम्प्रदायिक पार्टी कहा वही भाजपा ने भी उसे देशद्रोह जैसे तमगो से नवाजा। इसी का नतीजा था कि एक समय जम्मू-कश्मीर में बीजेपी और पीडीपी का साथ आना चुनाव तक बिल्कुल असंभव लगता था। खुद मुफ्ती मोहम्मद सईद कह चुके थे कि यह उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के मिलने जैसा है और जब उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव मिलते हैं, तब प्रलय होती है।  मगर चुनाव खत्म हुआ नतीजे आये और दोनों का गठबंधन हुआ इसे बाद में खुद मुफ्ती सईद द्वारा प्रलय के बजाय सृजन कहा गया।

भाजपा की ओर से भी इसे देशहित में लिया गया फैसला बताया गया। हालाँकि यह बात दूसरी है जब दो साल से ज्यादा समय तक सरकार चलाकर भाजपा ने अपना समर्थन वापिस लिया तो इसे भी उनकी ओर से देशहित में लिया गया फैसला बताया गया था।

एक समय था बिहार में कांग्रेस की विचारधारा के खिलाफ लालू की पार्टी ने जन्म लेकर कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया और एक दशक से ज्यादा समय बिहार में राज किया। इसके बाद लालू यादव की विचारधारा के खिलाफ नितीश कुमार सामने आये और लालू की पार्टी को हाशिये पर धकेल दिया।

फिर एक दशक भाजपा और नीतीश की सरकार चली लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव के बाद नया समीकरण उभरा विचारधारा को अलग खूंटी पर टांगकर दोनों एक हुए और भाजपा को सांप्रदायिक पार्टी बताया। खैर मामला लम्बा नहीं खिंच पाया दोनों का तलाक हुआ और फिर भाजपा के साथ जदयू का निकाह हो गया। आज लालू और कांग्रेस एक ही राजनितिक थाली में सत्ता के मिष्ठान की बाट जोह रहे हैं।

ये बाते आज इसलिए उठ रही है क्योंकि जब 13 नवम्बर को शिवसेना और एनसीपी के गठबंधन की खबर चली तो तब एक तथाकथित देशभक्त चैनल पर न्यूज चल रही थी कि क्या हिंदुत्व के दुश्मनों से हाथ मिलाएगी शिवसेना? जो चार दिन पहले तक हिंदुत्व के दुश्मन थे आज वो सत्तारुद्ध पार्टी के गले मिलते ही धर्म की गंगा नहा गये बस यही सोचकर लगता है कि देश को सरकार चला रही है या मीडिया?

कभी शीला दीक्षित के खिलाफ केजरीवाल भ्रष्टाचार के सबूतों का एक थैला भरके घूमते थे फिर दिल्ली में चुनाव हुए और केजरीवाल कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री की गद्दी पर विराजमान हुए तो गठबंधन की मज़बूरी में वह थेला यमुना जी में प्रवाहित करना पड़ा।

विचारधारा का ऐसा उदहारण कहाँ मिलेगा कि 19 सितम्बर को जब बीजेपी की तरफ से चुनाव प्रचार का आगाज करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नासिक पहुंचे तो उन्होंने शरद पवार पर भी तीखी टिप्पणियां की थीं। इसके बाद एनसीपी के राष्ट्रीय महासचिव सामने आये और कहा कि पिछले विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी को समर्थन देना हमारी ऐतिहासिक भूल थी। खैर फिर वही ऐतिहासिक भूल का गठबंधन हुआ क्योंकि दुनियाभर में आज घनघोर राजनीतिक समीकरण देखने को मिल रहे। आज दुनिया इस विकल्प चल रही कि या तो आप हमारे साथ हैं या हमारे विरोधी के साथ. बीच का या इससे परे का कोई रास्ता नहीं है। इस कारण किसी भी विचारधारा का अंध-समर्थन और खेमेबाजी हमारी न्यूनतम मानवीय संवेदनशीलता तक का अपहरण कर सकती है।

बहराल पिछले कार्यकाल में अपने एक बयान में डेम को मूत से भरने वाले अजीत पंवार को उपमुख्यमंत्री बनने पर बधाई। चार दिन पहले मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने वाले देवेन्द्र फडनवीश को पुन: मुख्मंत्री बनने की शुभकामनायें। 22 नवम्बर तक जिन चैनलों की नजर एनसीपी हिंदुत्व विरोधी पार्टी थी 23 की सुबह वो हिंदुत्व की भक्त हो गयी इसके लिए भी बधाई.

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