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रेप और न्याय कितना सही, कितना गलत.?

इन दिनों तीन बड़े रेप को लेकर भारत में चर्चा है पहला निर्भया जिसे इस 16 दिसम्बर को सात वर्ष हो जायेंगे इस जघन्य रेप और हत्याकांड के सभी आरोपियों को फांसी सजा सुनाई जा चुकी है। दूसरा हैदराबाद में पिछले दिनों एक महिला डॉक्टर के साथ बर्बरता का किस्सा सभी का जुबानी है। और तीसरा उन्नाव में एक महिला के रेप के आरोपियों ने पीड़ित महिला की आग लगाकर हत्या का मामला भी देश की संसद तक गूंज रहा है।

जहाँ लगातार इन जघन्य अपराधों को लेकर सोशल मीडिया और राजनीति में लगातार रोष मचा हुआ है, वहां इन अपराधों की सजा पर सवाल भी खड़े हो रहे है। सवाल इसलिए क्योंकि 6 दिसम्बर की सुबह जब हम जगे तो एक चैकाने वाली ख़बर मिली थी कि पिछले हफ्ते हैदराबाद में महिला डॉक्टर से सामूहिक बलात्कार और उसे जलाकर मारने वाले सभी चार अभियुक्तों को पुलिस ने मार गिराया। पुलिस का कहना था कि चारों अभियुक्त क्राइम सीन से भागने की कोशिश में मारे गए। अपराध को रिक्रिएट करने के लिए अभियुक्तों को रात में क्राइम सीन पर ले जाया गया था।

इस घटना पर राजनीति और समाज बंटे-बंटे से नजर आये एक ओर जहाँ एक बड़े जनसमूह का मानना यह है कि अपराधियों को तत्पर सजा मिल गयी चाहें उसका तरीका जो भी रहा हो। वहां दूसरी तरफ कुछ लोगों का यह भी मानना है यदि अपराध न्यायलय में साबित नहीं हुआ तो मारे गये आरोपी अपराधी कैसे हुए?

व्यक्तिगत तौर यदि कहा जाये तो हम हैदराबाद पीड़िता और उनके परिजनों के लिए बहुत दुखी है। लेकिन उतना ही गोपू और उनके परिवार के लिए भी बेहद दुखी है जिनकी गर्भवती पत्नी की आसिफाबाद गैंग रेप के बाद हत्या कर दी गई। गोपू की पत्नी की हत्या, हैदराबाद पीड़िता की हत्या से ठीक तीन दिन पहले हुई थी। गोपू की पत्नी उम्र में हैदराबाद पीड़िता से तीन साल बड़ी थीं। वो एक बंजारा समुदाय से ताल्लुक रखती थीं जो दिहाड़ी मजदूरी और छोटे-मोटे सामान बेचकर जिंदगी बसर करता है। यह खबर सोशल मीडिया का हिस्सा नहीं बनी इस कारण यह दब कर रह गयी।

अब यदि इन सब अपराधों को न्याय की तराजू में रखकर देखा जाये तो सभी में रेप और हत्या का मामला निकलकर आता है किन्तु तुलनात्मक अध्यन में सभी अलग-अलग आते है। बात को निर्भया से शुरू करें तो 16 दिसम्बर 2012 की रात निर्भया एक बस में चढती है जिसमें सभी अपराधी शराब के नशे में थे। अश्लील फब्तियों से लेकर शुरू हुआ एक अपराध अपने दर्दनाक अंजाम तक पहुंचता है और पीडिता चार दिन बाद दम तोड़ देती है। यानि इसमें कुछ भी योजनाबद्ध नहीं था। किन्तु हैदराबाद मामले में पूरा घटनाक्रम पुलिस की माने तो योजना बनाकर किया गया था। अपराधियों पहले से जानते थे कि महिला डॉक्टर कहाँ अपनी स्कूटी खड़ी करती है उसे जानबूझकर पंक्चर किया गया फिर मदद के बहाने उसके साथ चले और अंत में इस अपराध को तयशुदा योजना के अनुसार अंजाम तक पहुंचा दिया।

तीसरा उन्नाव केस इसमें भी रेप पीड़ित एक महिला को जलाकर मारा गया। यदि इस मामले को देखें तो पीडिता का आरोपी पडोस के लडके से प्रेम प्रसंग था। दोनों ने काफी वक्त साथ गुजारा परिवारजनों से छिपकर विवाह भी रचाया। किन्तु जब मामला गाँव में उछला तो आरोपी लडके ने विवाह न होने से मना कर दिया तत्पश्चात पीडिता ने रेप का मुकदमा दायर किया। आरोपी जेल गया, जमानत पर रिहा हुआ और पीडिता की जलाकर हत्या कर दी।

यानी तीनों मामलों का अंजाम एक था लेकिन आगाज अलग अलग थे। न्याय के नजरिये से यदि इनका विश्लेषण किया जाये उन्नाव और निर्भया मामला अलग है और हैदराबाद मामला योजनाबद्ध था। हालाँकि हैदराबाद पीड़िता हो या उन्नाव यह सब उन तमाम महिलायों में से हैं जिन्हें बलात्कार के बाद बर्बरतापूर्वक मार दिया गया। ये सब तब हुआ जब भारत में बलात्कार के लिए संशोधित और कड़े कानून हैं, फास्ट ट्रैक अदालते हैं और पूरी क़ानूनी प्रक्रिया है।

समाज में बर्बर हत्याएं असहनीय होती हैं। ये सब ऐसे अपराध हैं, जो बर्दाश्त नहीं किए जाते। लेकिन हमें देखना होगा कि हम अपना दुख और गुस्सा किस तरीके से व्यक्त कर रहे हैं। तरीका ऐसा होना चाहिए जो दुख को कम करने में मदद करे। हमने बलात्कार के विरुद्ध कड़े कानून की मांग की। हमें कड़े कानून मिले भी। लोगों के गुस्से और तीव्र विरोध प्रदर्शनों को देखते हुए वर्ष 2013 में जस्टिस वर्मा समिति बनी और नए क़ानून आए। इसलिए ये समझना जरूरी है कि दिल्ली निर्भया गैंगरेप के परिवार का संघर्ष बेकार नहीं गया। लेकिन हैदराबाद फैसला फटाफट आया और जन भावनाओं के अनुरूप आया लेकिन सवाल यह भी है क्या पुलिस ऐसे लोगों को साथ भी ऐसा सुलूक कर सकती है जिनकी पहुँच ऊपर तक होती है? अगर ऐसा होता तो क्या उन्नाव में ही कुछ महीने पहले एक राजनेता पर आरोप लगे थे कि पीडिता को गाड़ी में मारने का प्रयास भी किया गया जिसमें उसके एक दो रिश्तेदारों की भी मौत हो गयी थी। लेकिन यहाँ पुलिस और समाज की अलग-अलग प्रतिक्रिया देखने को मिली थी। जहाँ पुलिस आरोपी विधायक को गिरफ्तार करने में भी कमजोर दिखाई दे रही थी वही समाज का एक हिस्सा उन्नाव की सड़कों पर बेनर लेकर घूम रहा था कि हमारा विधायक निर्दोष है? फटाफट न्याय प्रक्रिया पर यदि एक मामले को और देखें तो गुडगाँव साल 2017 में रेयान इंटरनेशनल स्कूल के प्रद्युम्न मर्डर केस में शुरूआती जाँच में पुलिस द्वारा बतौर आरोपी स्कूल बस चालक ड्राइवर पकड़ा गया था। जिसने किसी दबाव में अपराध भी स्वीकार कर लिया था। लेकिन बाद में सीबीआई जाँच हुई तो मामले में स्कूल का ही ग्यारवी कक्षा का छात्र निकला इसलिए जरुरी नही सभी मामले फटाफट निपटाए जाएँ।

जिस तरह आज अनेकों निर्वाचित प्रतिनिधि, राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता न्याय का माहौल बना रहे है महिलाओं को समझा रहे है कि जाइये आपको न्याय मिल गया है। क्या कल जब कोई राजनितिक दलों से जुडा नेता या कथित धार्मिक गुरु या बाबा बतौर अपराधी पकड़ा जायेगा तो क्या उसके लिए भी यही माहौल होगा? शायद नहीं! क्योंकि आसाराम से लेकर रामरहीम, रामपाल हो या नित्यानंद रहा हो हमने समाज और राजनीति को बंटते हुए उनके लिए मरते हुए देखा है। इसलिए हैदराबाद के न्याय पर जश्न जरुर मनाइए लेकिन उससे अधिक एक सामाजिक माहौल का निर्माण कीजिये जिसमें बलात्कारी और उसका परिवार का सामाजिक बहिष्कार किया जाये। पीडिता का साथ दीजिये, हमें न्याय, स्वतंत्रता और एक सभ्य समाज को गरिमा से पाने के लिए इस विषय पर गंभीरता से सोचता ही होगा क्योंकि इसका और कोई विकल्प नहीं है।

हाँ लानत है आज मानवाधिकार संस्था पर जो इन्हें बलात्कारी निहत्थे नजर आये लेकिन इन्हें ये नजर नहीं आता कि निर्भया, दिशा और इन जैसी तमाम बेटियाँ भी निहत्थी और बेगुनाह होती हैं जब उन्हें नोचा जाता है, जिंदा जलाया जाता है, हो सकता हैं हैदराबाद पुलिस ने कानून तोड़ा हो! लेकिन महाभारत में भी धर्म स्थापना के लिए कई बार परम्परागत नियम तोड़े गये थे ताकि पापियों से भूमि मुक्त हो।

लेख-राजीव चौधरी 

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