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वेदों में प्रतिपादित समाजवाद: आदर्श समाज निर्माण का सर्वश्रेष्ठ सिद्धांत

संसार में अनेक वाद प्रचलित हैं। इनमें आस्तिकवाद, नास्तिकवाद, एकेश्वरवाद, बहुदेव वाद, भोगवाद, त्यागवाद, साम्यवाद, समाजवाद इत्यादि। वेद इन सबकी उद्गम स्थली हैं पक्ष-विपक्ष के रूप में वहां इन सभी का चित्रण है। यहां पर हमारा विषय समाजवाद है। इसे प्रस्तुत लेख में यह प्रतिपादित किया जायेगा कि वेदों में किस प्रकार का समाजवाद प्रतिबिम्बित है। वेद व्यक्ति की अपेक्षा समाज को ही प्रमुखता देता है। यह समाज किस प्रकार सुखी-सम्पन्न तथा समभाव युक्त बने इस विषय में वेदों में निम्न विचार उपलब्ध हं

1.  सर्वमल की भावना– वेद सम्पूर्ण समाज के अभ्युदय की बात करता है। कर्तव्य के रूप में तो क्तिगत स्तर पर एक वचन में भी करणीय कार्यां का उपदेश दिया गया है, किन्तु फल की दृष्टि से पूरे समाज को ही दृष्टि में रखा गया है। वेद के आरम्भ में ही हमें यह भावना दृष्टिगोचर हो जाती है। जैसे ऋग्वेद के प्रथम सूक्त के प्रथम मन्त्र में एक स्तोता ’अग्निमीडे’ कहकर अग्नि के स्तवन की बात करता है, किन्तु इसी सूक्त के अन्तिम मन्त्र में पूरे ’स चस्वा नः स्वतये’ कहकर सभी के लिए कल्याण की कामना की गयी है। इसी प्रकार एक अन्य सूत्र में समाज को दृष्टि में रखकर कहा गया है कि हे आर्य! हम सबको सुपथ पर ले चलों, कुटिल पाप से हमें बचा लीजिए तथा ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए हमारा मार्गदर्शन करिए। इसी प्रकार सुप्रसिह् राष्टन्न्य प्रार्थना ’ओम् आ ब्र२न ब्रा२णो’ ;यज्ञ. 21/22द्ध में भी अन्त में यही कहा गया है। ’योग क्षेमो नः कल्पताम्। पूरा समाज ही इस योगक्षेम का अधिकारी बने, अकेला व्यक्ति नहीं। इसी प्रकार अन्यत्र भी पदे पदे वेदों में ’व’ तथा ’नः’ के द्वारा सम्पूर्ण समाज के मंगल की ही कामना की गयी है।

2. समानता की भावना – वेद समानता का प्रतिपादक है। इसी का नाम समाजवाद है- इसके अनुसार समाज में अधिकार तथा व्यवहार की दृष्टि से भेदभाव न हो। समानता की भावना के निम्न स्वरूप वेदों में प्राप्त होते हैं-

(क) जाति या धन आदि की दृष्टि में:- वेद में जाति प्रथा है ही नहीं। वहां पर वर्ण की दृष्टि में चारों वर्ण समान मान वाले हैं। उनमें धन या वर्ण आदि के आधार पर कोई भी छोटा-बड़ा नहीं है जैसा कि वर्त्तमान समाज में देखा जाता है। वेद के अनुसार मानव मात्र परमेश्वर के पुत्र हैं। अतः सभी बराबर हं तथा परस्पर बन्धु हैं। उनमें किसी प्रकार की उंच-नीच की भावना नहीं है। सभी मिलकर ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए उद्यम करें।

(ख) खान-पान की समानता:- जब सभी मानव उंच-नीच के भेद से रहित होकर परस्पर समान हैं, तो उनमें वर्त्तमान में प्रचलित सवर्ण तथा दलित जैसे प्रथाए नहीं हं। सभी मनुष्यों के खाने तथा जल आदि पीने के स्थान पृथक-पृथक न होकर सब के लिए समान है, क्योंकि वर्त्तमान समाज इन आधारों पर भी परस्पर विभक्त ह, जो की असमानता का ही सूचक है।

(ग) स्त्री-पुरुष समान:- वेद में स्त्रियों के भी वे ही सभी अधिकार प्राप्त हं जो कि पुरुषों के हैं। वह ब्र२चर्य व्रत का
पालन करके वेदाध्ययन भी करती हैं तथा गृहस्थ में पति की अर्धागनी है। ’जायेदस्तम्’ के द्वारा पत्नी को ही घर में सर्वप्रमुख बतलाया गया है। मध्यकाल में स्त्रियों के अधिकारियो को कम कर दिया गया था। वर्त्तमान में स्त्रियों को यथार्थ पर्याप्त अधिकार प्राप्त है तथापि आरक्षण की मांग उठते रहना उनकी अधिकार न्यूनता का ही द्योतक है।

3. सर्वप्रियत्व की भावना – वैदिक समाजवाद का ध्येय है कि आपस में द्वेष न करके सभी जन परस्पर मैत्री की भावना में व्यवहार करे। वेद की दृष्टि तो इससे भी अधिक व्यापक है। वह तो पशु-पक्षियों तक का प्रिय होने का उपदेश देता है। वेद एक ऐसा व्यक्तित्व उपस्थित करता है जो ब्रा२ण, क्षत्रिय,वैश्य तथा शूद्र इन चारों वर्णो का प्रिय हो। आज समाज में जातियों आदि के अनेक रूपा  में वर्ग संघर्ष उत्पन्न हो रहा है। ऐसे में वेदानुमोदित सर्वप्रियत्व की भावना ही समाज का कल्याण एवं रक्षा कर सकती है।

4. सह अस्तित्व की भावना-जब तक समाज सह अस्तित्व की भावना को नहीं अपनाएगा तब तक वह सुखी नहीं हो सकता। सह अस्तित्व तभी सम्भव है जबकि हमारे मानसिक नव, संकल्प तथा ह्रदय एक हों। उनमें परस्पर ईष्र्या-द्वेष-द्रोह- अपकार इत्यादि दुर्गुण न हों। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह परस्पर की सदृश्यता, सौहार्द तथा सामन्जस्य के बिना नहीं जी सकता। ….. समाज में अकेला चल कर न तो वह उन्नति कर सकता है न ही जीवित रह सकता है। समाज उसका रक्षक एवं शिक्षक है। इसलिए व्यक्ति को भी चाहिए कि वह भी समाज के वन्य प्राणियों की सेवा, सहायता किया करे। इसी अभिप्राय से वेद मं ’विश्व भृतश्च’ ;यजु. 10/4द्ध कहा गया है। अर्थात यह केवल अपना ही भरण-पोषण करने वाला न होकर समाज के अन्य घटकों का भी भरण पोषण करे। यही सामाजिक कर्तव्य है। न केवल भरण-पोषण करें अपितु अन्य सभी रूपों में वे एक-दूसरे की सहायता तथा रक्षा करें। वाणी से भी एक-दूसरे के लिए कल्याण का उपदेश दिया करे।

5.कोई भी अभावग्रस्त न हो– वैदिक समाजवाद में कोई भी व्यक्ति धनाभुव से पीडि़त नहीं हो सकता, न ही समाज का कोई भी प्राणी भूख से मर सकता है जैसाकि आजकल हो जाता है। यजुर्वेद में हर व्यक्ति के प्रति सजगता का स्पष्ट आदेश दिया गया है कि संसार के मानव मात्र को भोजन से तृप्त करो। ऐसे व्यक्ति को वेद में लोक कृत्, लोक कृत्नु तथा लोक सनि कहकर उसे यजनीय सम्माननीय तथा पूजनीय बतलाया गया है।

6. चारों वर्ण परस्पर पूरक हैं- सामाजिक अभाव को दूर करने के लिए ही वेद में चार वर्णों की अवधारणा है। ये चारों वर्ण परस्पर विरुह् न होकर एक-दूसरे के पूरक तथा सहयोगी हैं। संसार में चार प्रकार का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है- 1. ज्ञान, विज्ञान विद्या का अभाव 2. शक्ति या रक्षा का अभाव 3. ध्ान-धान्य तथा अर्थ का अभाव। समाज कतीन वर्ण समाज के इन्हीं अभावों के पूरक हैं। ब्रा२ण का दायित्व अविद्या को नष्ट करके ज्ञान देना है। क्षत्रिय का दायित्व समाज के प्रत्येक प्राणी की रक्षा तथा वैश्व का दायित्व प्रत्येक प्राणी की सेवा करना है। अर्थात् समाज का हर व्यक्ति एक-दूसरे का पूरक बने। अतः शूद्र का कर्तव्य इन तीनों वर्णों की सेवा करना है।

7. समाज में कोई भी भूखा-प्यासा न रहे– समाज के प्रत्येक मनुष्य के पास समान सम्पत्ति नहीं हो सकती। धनी-निधर्न तो रहेंगे ही। यह भी सम्भव है कि एक व्यक्ति के पास असीमित धन-सम्पत्ति हो तथा दूसरे के पास भोजन तथा निवास का भी प्रबन्ध न हो। ऐसी स्थिति में समाज में विषमता उत्पन्न होगी ही। इसका समाधान दो ही प्रकार से हो सकता है। प्रथम यह कि धनवान व्यक्ति स्वेच्छा से निर्धनों को धन तथा जनादि प्रदान करे, जिससे कि वे भी जीवित रह सकें। यदि ऐसा नहीं होता तो दूसरा मार्ग यही है कि निर्धन वर्ग जबरदस्ती से धनिक वर्ग से धन छीन ले। यह दूसरा रास्ता समाज में हिंसक व्रती को बढ़ाकर परस्पर शत्रुता तथा कलह कराने वाला है। वर्तमान समय में साम्यवादी यही मार्ग अपनाते हैं किन्तु इससे शान्ति नहीं हो सकती। इसीलिए वेद में प्रथम मार्ग का ही उपदेश दिया गया है कि समाज का प्रत्येक धनी व्यक्ति निर्धनों को अन्न-धन आदि प्रदान करे। Ωग्वेद में अति स्पष्ट शब्दों में कहा गया है अकेला खाने वाला पापी है इसलिए बांटकर खाना चाहिए। इससे समाज का कोई भी प्राणी भूखा-प्यासा नहीं रहेगा। वेद कहता है कि अन्यों को भोजन तथा दान देने वाला व्यक्ति कभी न तो व्यथित होता है न ही उसका धन देने से कम होता है। वह समस्त सुखों को प्राप्त करता है। आवश्यकता पड़ने पर उसके पास पर्याप्त धन हो जाता है।

राधसः ;यजु. 30/4द्ध वेद में एक अन्य दृष्टि यह भी है कि यदि व्यक्ति स्वयं इस प्रकर दानशीलता को अपनाकर समाज की सहायता नहीं करता तो राजा को चाहिए कि ऐसे कपटी व्यक्तियों के धन को प्रजा में बांट दे। यह अधिकार केवल राजा को दिया गया है, सभी मनुष्यों को नहीं। राजा को यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रजा वर्ग में अयाज्ञिक व्रती वाला कौन व्यक्ति है तथा कौन धनाभाव से ग्रस्त है। यदि धनी व्यक्ति स्वयं न दे तो राजा उसके धन को अभावग्रस्त प्रजा में बांट दे। इस प्रकार यह समाजवाद का आदर्श स्वरुप है। इस याज्ञिक अर्थात् दानव्रती को अपनाकर जहां एक ओर अभावग्रस्त की रक्षा होगी, वहा दूसरी ओर दाता को इसका धर्मलाभ भी मिलेगा।

इस प्रकार विश्व का प्रत्येक मानव वैदिक समाजवाद की परिधि में आ जाता है। वेद समान रूप में मानव मात्र के कल्याण तथा उत्थान की बात सोचता है। किसी वर्ग विशेष की नहीं। वेदां में कहे गये वैयक्तिक तथा सामाजिक अधिकार एवं कर्त्तव्य सभी के बराबर हैं। इसमें किसी प्रकार का भेद नहीं है। सामाजिक उत्थान तभी हो सकता है जब व्यक्ति में दान, परोपकार, बंधुत्व आदि की व्रती जगे, किसी भय अथवा नियम के कारणवश ही वह उसे करने में बाध्य न हो। वैदिक समाजवाद का यह आदर्श रूप है।

 

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