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महर्षि दयानन्द की जरूरत क्यों?

आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व गौतम बुद्ध( बचपन का नाम सुद्धार्थ) इस धरा पर हुए। उनका हृदय करुणा और मानव मात्रा के प्रति प्रेम से भरा हुआ था। वे भ्रमण करने निकले। समाज की अच्छाई और बुराई पर विचार करते थे। वे जिधर जाते उन्हें हिंसा का अराजक वातावरण दिखाई देता था। हिंसा का तांडव हो रहा था। लाखों-हजारों पशुओं की बलि चढ़ाई जा रही थी। धर्म के नाम पर हजारों मूक पशुओं की निर्मम हत्या की जा रही थी। इन हत्याओं को धर्म के ताने-बाने में बुना जा रहा था। मंदिरों तथा उपासना के पवित्रा स्थल रक्त रंजित हो रहे थे। इसके विरोध् में कोई आवाज नहीं उठाता था। सब चुप बैठे थे। सिद्धार्थ साहसी थे। तार्ककता और मानवीय संवेदना से भरा चित्त उन्हें चैन से सोने नहीं देता था। अजीब सी बेचैनी उन्हें परेशान करती थी। उनसे रहा न गया। उन्होंने सवाल करने का निर्णय लिया। उन्होंने समाज से पूछा। समाज के तथाकथित कर्णधरों से पूछा। धर्मध्वजी ब्राह्मणों से पूछा। इस कुत्सित हिंसा और बलि के लिए जिम्मेदार कौन है? सबने एक ही स्वर में जवाब दिया-वेद में लिखा है। यह वेदोक्त कर्म है। उस युवक में जोश था, जुनून था। वह करुणा और मैत्राणी के भाव से भरे हुए थे। वह अनुचित को उचित मानने को तैयार नहीं थे। चाहे वह किसी भी धर्मग्रन्थ में क्यों न लिखा गया हो। उन्होंने कहा, ‘जो वेद हिंसा को उचित मानता है, मैं उस वेद को नहीं मानता’ वह वेद के खिलापफ हो गये। वेदपोषित धर्म के खिलापफ हो गये। लगभग ढाई हजार वर्षों बाद इस घटना की पिफर पुनरावृत्ति होती है। गुजरात के टंकारा ग्राम में तीव्र मेध संपन्न प्रेम दया व करुणा से परिपूर्ण हृदय वाले मूलशंकर का जन्म हुआ। सिद्धार्थ वेफ जीवन में जीवन की चार अवस्थाओं के ज्ञान का जिक्र होता है। मूलशंकर ने भी चाचा और बहन की मृत्यु के रूप में जीवन के उसी सत्य का साक्षात्कार किया। वे मृत्यु को जानकर उससे परे जाने की बात सोचते थे। यही घटना उनके वैराग्य का सोपान बनी। उन्होंने सिद्धों, संतों, तपस्वियों का संग किया। कई-कई दिनों? तक निराहार रहे। हिमालय की कंदराओं में तपस्या की। बर्फीली नदियों को पार किया। समाधी में लीन रहे। गुरुवर विरजानन्द की शरण में शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। ज्ञान और तप के सर्वोच्च शिखर को छुआ।

वे भी अपने करुणापूर्ण चित्त से प्रेरित होकर गुरुदेव की आज्ञा लेकर देश का भ्रमण करने निकल पड़े। तथाकथित ब्राह्मणों का समाज में वर्चस्व था। सती प्रथा के नाम परस्त्रिायों को जिन्दा जलाया जा रहा था। स्त्रिायों को पढ़ने का अध्किार न था। बाल विवाह, नारी-अशिक्षा, विध्वाओं पर अत्याचार, अंध्विश्वास, पाखण्ड, जातिप्रथा जैसी न जाने कितनी कुरीतियों ने समाज को जकड़ रखा था। बलिप्रथा के नाम पर रक्त तब भी बह रहा था। इस दृश्य ने मूलशंकर (दयानन्द) को हिलाकर रख दिया। मानवीय संवेदना से भरा उनका चित्त बेचैन हो उठा-

वे रात को उठकर रोते थे जब सारा आलम सोता था।

वही सवाल, जो ढाई हजार वर्ष पूर्व सिद्धार्थ ने उठाया फिर उठा। इस कुत्सित हिंसा और बलि के लिए जिम्मेदार कौन है? मानव मानव के बीच ऊँच-नीच की रेखा किसने खींची। नारी को पढ़ने का अधिकार क्यों नहीं है। सबने एक ही स्वर में फिर वही जवाब दिया। वेद में लिखा है। यह वेदोक्त कर्म है। सवाल भी लगभग वही था। जवाब भी वही था। अंतर था तो मूलशंकर और सिद्धार्थ की प्रतिक्रिया में। सिद्धार्थ ने बिना क्षण गँवाये कह दिया “मैं ऐसे वेद को नहीं मानता, जो समाज को हिंसा की प्रेरणा देता है.”

मूलशंकर ने कहा. मुझे दिखाओ तो सही वेद में लिखा कहाँ है? मैं वेद का स्वाध्याय करूँगा। वेद पढ़ूँगा, उसका आलोकन करूँगा, मंथन करूँगा, विवेचन करूँगा। महर्षि वेद के खिलापफ नहीं हुए। उन्होंने वेदों को पढ़ा और पाया कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।

उन्होंने वेद को इतनी गहराई से पढ़ा कि वे ‘वेदोंवाले’ स्वामी ही बन गए। वैदिक ज्ञान को विज्ञान से जोड़ने वाले आधुनिक युग में वे प्रथम व्यक्ति थे। अगर दयानन्द नहीं होते तो शायद हम सबके घर मैं एक सिद्धार्थ होता, जो वेद और तत्पोषित धर्म को नकार रहा था। महर्षि ने न जाने कितने नास्तिकों को आस्तिक बनाया। तर्क संपन्न, आंग्लशिक्षा से प्रभावित मुंशीराम और गुरुदत्त जैसे न जाने कितने युवाओं के मलीन मन को महर्षि के जीवन ने वैदिक आस्था के गंगाजल से परम पावन और प्रेरक बना दिया था।

महर्षि दयानन्द की सामयिकता

आज गली-गली में शराब की दुकानें हैं। शिक्षा की सजी हुई तथाकथित दुकानों में चरित्रा को ताक पर रखा जा रहा है। माता-पिता वृद्धाश्रम (old age home)  की शोभा बन रहे हैं। युवा पीढ़ी अपने सांस्कृतिक मूल्यों से दूर हो गई है। नित नए-नए गुरुओं का डंका बज रहा है। देश की जनता को बरगलाकर कृपा का कारोबार किया जा रहा है। आज अगर हम अपनी पीढ़ी को भौतिकता की चकाचौंध् में खोते हुए नहीं देखना चाहते तो वे ; महर्षि दयानन्दद्ध सामयिक हैं। आज हम नहीं चाहते कि हमारी पीढ़ी नैतिक मूल्यों से दूर हो तो वे सामयिक हैं। देश के सामने बड़ी-बड़ी चुनौतियाँ हैं। अज्ञान, अन्याय और अभाव को दूर करने में हम असमर्थ हो रहे हैं। अज्ञान से लड़ने वाले ब्राह्मणों का समाज में अभाव है। अन्याय से निजात दिला सकने वाली क्षात्रा शक्ति कहीं अदृश्य हो गई है। समाज का अभाव दूर कर सकने वाले वैश्य कहीं दिखाई नहीं देते। वर्णव्यवस्था के बिना इसका समाधन कैसे होगा। अज्ञान के अभाव में अंध्विश्वास तथा पाखंड का प्रचार हो रहा है। वर्णव्यवस्था के सामाजिक मनोविज्ञान को दयानन्द के बिना समझा नहीं जा सकता। फलित ज्योतिष और कृपा का कारोबार करने वालों की कतार दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है। मंदिरों के नाम पर करोड़ों का वारा न्यारा किया जा रहा है। जिन मंदिरों को समाज सुधर का केन्द्र बनाना था, वे अपनी ही रोटी सेंकने में मस्त हो गए है। धर्मस्थलों को व्यभिचार तथा व्यसन का केंद्र बनाने में कोई ज्यादा देर नहीं है। भारतीय धर्म तथा अध्यात्म को नीचा दिखाने की नित नई-नई कोशिशें की जा रही हैं। महर्षि दयानन्द के तर्क तीक्ष्ण शरों के बिना इस महायुद्ध( में विजयी नहीं बना जा सकता। वेदादिशास्त्रों तथा तत्पोषित धर्म की रक्षा के लिए महर्षि के विचारों की सामयिकता हमेशा बनी रहेगी।

जब-जब वेदों की सामयिकता तथा उसकी वैज्ञानिक पृष्ठभूमि की चर्चा होगी तो ‘ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका’ की याद जरूर आयेगी। जब धर्म की आड़ में पल्लवित इन विविध् सम्प्रदायों, पन्थों के विश्लेषण की गह्वरा में कोई उतरने का साहस करेगा तो ‘सत्यार्थप्रकाश’ का प्रकाश उसका मार्ग प्रशस्त करेगा। जब कभी मानव निर्माण की विधिको खोजने का प्रयास किया जायेगा। तो ‘संस्कारविधि’ मानव निर्माण के विज्ञान को परिभाषित करती हुई परिलक्षित होगी। मानव व्यवहार के विज्ञान की समझ को जब आगे बढ़ाने की कोशिश की जायेगी तो महर्षि दयानान्द प्रणीत ‘व्यवहारभानु’ मानव मनोविज्ञान के आकाश में अपनी किरणें प्रसारित करता नजर आएगा। जब-जब समाज-सुधरकों की गणना की जायेगी समाज-सुधरक महर्षि दयानन्द उस आकाश में चमकते हुये ‘ध्रुव’ तारे की भाँति दिखाई देंगे। महर्षि ने वैदिक ध्वजा लेकर पुरातन ज्ञान के जल से नवीन जगत् के क्षेत्रा को सींचा है। नारी को अबला से सबला बनाकर उन्होंने गार्गी, दुर्गा, मदालसा और दुर्गा तक बनने का अध्किार दिया। नारी जाति के सच्चे उ(ारक वही हैं। जाति-पाँति का भेद भुलाकर उन्होंने कहा कि हम सब ईश्वर पुत्रा हैं-

श्ृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः।

वेदादिशास्त्रों के माध्यम से स्वदेश प्रेम का अलख जागने वाले वे पहले व्यक्ति थे। उनका मानना था कि ‘जो स्वदेशी राज्य होता है, वो सर्वोपरि होता है।’ पहले धर्मगुरु हैं। सामाजिक परिवर्तन की दिशा में सर्वाध्कि महत्त्वपूर्ण योगदान उन्हीं का है। महर्षि के विचार आज भी आधुनिक हैं। महर्षि दयानन्द आज भी सामयिक हैं। उनके विचार हमारी तर्कशक्ति को जीवित करते हैं। महर्षि दयानन्द की आँखें हमारा मार्ग प्रशस्त करती हैं।

आर्यसमाज का प्रचार कार्य

आर्यसमाज का प्रचार कार्य तो चल रहा है। परंतु उसमें पहले जैसा जोश कम दिखाई दे रहा है। हम बड़े-बड़े सम्मेलनों में उलझे हुए हैं। सम्मेलनों में भीड़ के नाम पर आस-पास के आर्यजन जुट जाते हैं। महर्षि दयानन्द जी की जय बोल कर घर लौट आते हैं। मुझे लगता है कि यह वेद अथवा आर्यसमाज के प्रचार का कार्य नहीं है। किसी भी सम्मेलन को तभी सपफल मानना चाहिए जब उपस्थित जन-समुदाय का कम से कम दस प्रतिशत भाग गैर आर्यसमाजी हो। अगर हम अपने से इतर लोगों को नहीं जोड़ पा रहे हैं तो हमें आर्यसमाज के प्रचार के उपायों पर गहन विचार-विमर्श करना चाहिए। प्रचार के लिए छोटी-छोटी ध्नराशि भी बहुत काम करती है। ऐसी राशियों से छोटे-छोटे कार्यों से वेदप्रचार के कार्य की आधरशिला रखी जा सकती है। आर्यसमाज को सामयिक अवसरों पर महर्षि के विचारों पर प्रकाश डालते हुए कार्य करना चाहिए। समाचार-पत्रों और फ्रलेक्स के माध्यम से इसे जन-जन तक पहुँचाने की कोशिश की जानी चाहिए। दीपावली आदि बड़े पर्वों पर फ्रलेक्स के बैनर तैयार करके आर्यसमाज मंदिर के मार्गों मंस लगाया जाना चाहिए। आर्यसमाज मंदिर के बाहर वैदिक विद्वानों की सूची उनके संपर्क दूरभाषा संख्या के साथ लगाई जा सके तो अच्छा है। श्राद्ध, नवरात्रा, दीपावली, तीर्थस्नान तथा भारतीय पर्वों पर महर्षि दयानन्द के हदयस्पर्शी वाक्यों का प्रचार किया जाना चाहिए। वैदिक सत्संगों के स्तर को ऊपर उठाने की कोशिश की जानी चाहिए। हम छोटे-छोटे विज्ञापनों में स्वामीजी के विचारों के आधर पर छोटे-छोटे लेख ;टेªक्टद्ध तैयार करके जनता तक पहुँचा सकते हैं। इन प्रयासों में बहुत ही कम खर्च आता है और प्रचार का मार्ग प्रशस्त होता है। वैदिक संस्कारों, यज्ञ, योग आदि के माध्यम से अच्छा प्रचार होता है। आर्यसमाजियों के बीच आर्यसमाज का प्रचार मुझे तो बेमानी लगता है। आर्यसमाज को अपने जनोपयोगी सर्वहितकारी सिद्धान्तों तथा कार्यों को आगे ले जाने का कार्य करने की जरूरत है। आर्यसमाज को अपने सत्संगों में आस-पास के विशिष्ट लोगों को भी विशेष अवसरों पर आमंत्रिात करके यजमान बनने की प्रेरणा देनी चाहिए। आर्यसमाज अपने विद्वानों तथा धर्माचार्यों के कर्मकाण्ड से अनेक श्रद्धालु लोग जुड़े होते हैं, उन्हें आर्यसमाज का साहित्य भेंट किया जा सकता है। आर्यसमाज की गतिविध्यिों से सम्बन्ध्ति विज्ञापन उन तक पहुँचाये जा सकते हैं। आर्यसमाज के लिए दान भी एकत्रिात किया जा सकता है। जब हम दिल्ली में थे तो हमने देखा था कि आर्यसमाज के ध्र्माचार्य कर्मकाण्ड कराते समय अपने साथ आर्यसमाज की दान-रसीद अपने साथ रखते थे। कर्मकाण्ड और अपनी दक्षिण के पश्चात् वे आर्यसमाज की रसीद निकालते थे। इससे आर्यसमाज के प्रचार के लिए पर्याप्त ध्न एकत्रिात हो जाता था। धन-संग्रह की यह परंपरा मुझे बहुत ही सार्थक लगी। आर्यसमाज अपने ऐसे श्रद्धालुओं, जो सिर्फ कर्मकाण्ड के लिए आर्यसमाज में आते हैं, को भी आर्यसमाज से जोड़ सकता है। ऐसे सज्जनों को ‘स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश’ जैसी छोटी-छोटी पुस्तकें भेंट की जा सकती हैं। आर्यसमाज सेक्टर-6 भिलाई विभिन्न अवसरों पर निःशुल्क पुस्तक वितरण का कार्य करता है। वह इसके लिए धन्यवाद तथा साधुवाद का पात्र हैं। इस कार्य को योजनाबद्ध ढंग से प्रभावी बनाया जाये तो ज्यादा उपयोगी होगा। आर्यसमाज बैजनाथपारा विवाहित जोड़ों को सत्यार्थप्रकाश वितरित करता है। सत्यार्थप्रकाश को समझने तथा पढ़ने के लिए बुद्धि तथा मनोभावों का विशिष्ट स्तर अपेक्षित होता है। जो प्रथम बार आर्यसमाज के संपर्क में आनेवाले व्यक्ति में नहीं होता है। महर्षि दयानन्द के सिद्धान्तों से ओत-प्रोत गृहस्थ जीवन पर लिखी हुई पुस्तकें भेंट की जा सकती हैं। अगर आर्यसमाज की किसी पत्रिका का वार्षिक सदस्य उन्हें बनाया जाये तो यह आर्य पत्रिाकाओं के लिए जीवनदायी भी हो सकता है।

आर्य वैदिक सत्संग

आर्य वैदिक सत्संग को भी वेदप्रचार का केंद्र बनाया जा सकता है। पाखंड और अन्धविश्वास का प्रसार करने तथा गुरुडम  फैलाने वाले सत्संगों की भीड़ बढ़ती जा रही है। प्रत्येक आर्यसमाज को महीने में एक विशिष्ट वैदिक सत्संग का आयोजन करना चाहिए। इसकी योजना प्रथम सप्ताह में ही तैयार कर ली जानी चाहिए। आस-पास के विशिष्ट आर्यवक्ता को उद्बोध्न हेतु आमंत्रित किया जाना चाहिए। संभव हो तो माह में आने वाले विशिष्ट त्योहारों, पर्वों पर ऐसे आयोजन किये जाएँ। इन आयोजनों में सदस्यों को सपरिवार आने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। आजकल आर्यसमाज में आर्यसमाजी तो हैं किन्तु, आर्यपरिवारों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। आर्यसमाज अपने धर्माचार्यों को आपस में अदल-बदलकर भी उद्बोधन के लिए आमंत्रित कर सकते हैं। दीपावली-मिलन, होली-मिलन, आर्यपरिवार मिलन-समारोह जैसे आयोजनों से परिवारों की भागीदारी बढ़ती है।

शहर की आर्यसमाजें आपस में मिलकर शहर स्तर के आयोजन कर सकती हैं। कोशिश यह की जानी चाहिए की आयोजन का उद्देश्य अपने सिद्धान्तों का प्रचार तथा अपने संगठन को मजबूत करना ही होना चाहिए आजकल आर्यसमाज में भी मालापरस्ती बढ़ रही है। यह हमारे प्रचार को कमजोर करती है।

आचार्य डॉ. अजय आर्य

 

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