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वेदों में वर्णित कृषि-विज्ञान की आधुनिक उपयोगिता

– डॉ. भारती आर्य

कृषि-विज्ञान मानव जीवन से साक्षात् रूप से जुड़ा हुआ है। कृषि के द्वारा ही अन्न की प्राप्ति होती है। अथर्ववेदद के अनुसार अन्न ही सभी प्राणियों के जीवन का आधार है। इसके बिना प्राणी जीवित नहीं रह सकता है।

जीवन्ति स्वधयाऽन्नेन मर्त्याः। अथर्व 12.1.22

सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही अन्न की समस्या हुई। इसलिए वेदों में अन्न को विश्व की प्रमुख समस्या बताया गया है। इसके निवारण के लिए कृषि का आविष्कार हुआ।

अन्ने समस्य यदसन् मनीषाः। अथर्व 20.76.4

कृषि कार्य को गौरव का कार्य माना जाता था इसलिए इन्द्र और पूषा देवताओं को इसमें लगाया गया।

इन्द्रः सीतां निगृहणातुव। अथर्व 3.17.4

कवि और विद्वान भी कृषि करते थे।1 कृषि ओर अन्न से ही मनुष्य का जीवन था।

ते कृषिं च सस्यं च मनुष्या उपजीवन्ती। अथर्व. 8.10.24

जो कृषि विद्या में निपुण होते थे, उन्हें कृष्टराधि और उपजीवनीय (सफल जीविका वाला) कहा जाता था।

कृष्टराधिरुप जीवनीयो भवति   अथर्व. 8.10.24

कृषि विशेषज्ञों को ‘‘अन्नविद्’’ नाम दिया गया था। सर्व प्रथम उन्हांने ही कृषि के नियम बनाए थे।

यद् यामं चक्रुः – अन्नविदः। अथर्व 6.116.1

कृषि के आविष्कारक राजा पृथी (प्रथु) थे।

ऋग्वेद और अथर्ववेदद से ज्ञान होता है कि राजा वेन के पुत्र राजा पृथी ;प्रथुद्ध कृषि विद्या के प्रथम आविष्कारक थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम कृषि विद्या के द्वारा विविध प्रकार के अन्नों के उत्पादन का रहस्य ज्ञात किया। अथर्ववेद के अनुसार वैवस्वत मनु की परम्परा में वेन का पुत्र पृथी राजा हुए। उन्होंने कृषि की और अन्न उत्पन्न किए। 2

कृषि और अन्न पर सभी मनुष्यों का जीवन निर्भर है। इसलिए कृषिविद्यावित् की शरण में सभी लोग जाते थे।

ते कृषिं च सस्यं च मनुष्या उपजीवन्ति,

कृष्टराधिरूप जीवनीयो भवति।। अथर्व. 8.10;4द्ध, 12

अथर्ववेद के कृषिज्ञ सूक्त में विद्वानों और तत्ववेत्ताओं द्वारा करने का उल्लेख मिलता है।

सीरयु´ाजन्ति कवयो युगा वितन्वते पृथक्।

धीरा देवेषु सुम्नयो।। अथर्व. 3.17.1

अर्थात् बुद्धिमान, ज्ञानी व क्रान्तदृष्टा लोग दैवी सुख प्राप्त करने के लिए हलों का जोतते हैं अर्थात् कृषि करते हैं तथा हल व जुओं व विविध रूप से विस्तार है। खेती करने को विराज अर्थात् विशेष रूप से शोभित होने वाले कहा गया है।

विराजः श्रुष्टिः सभरा असन्नो नेदीय इत्सृण्यः षक्वमा यवन्। अथर्व. 3.17.2

किसान-

अथर्ववेद में कहा गया है कि देवताओं ने जल से युक्त उत्तम भूमि में मधुर अन्न- जौ, चावल आदि की खेती की, उस समय इन्द्र हलों का रक्षक (सीरपति) था और उत्तमदाता मरुत गण ‘कीनाश’ (किसान) थे।3

‘कीनाश’ शब्द खेती और खेती करने वाले किसान की महत्ता व गरिमा का परिचायक है। कुत्सितः नाशयति इति की नाशः अर्थात् दुखस्था का, हीनदशा का व बुराई का नाश करता है वह ‘कीनाश’ है। दुरवस्था व दुर्भिक्ष की स्थिति का नाश अन्नादि की उपलब्धि से होता है। अन्न का उत्पादन करके कुत्सित (दुरवस्था) का नाश करने वाला ही कीनाश ;किसानद्ध है। अन्न उत्पादन द्वारा अभाव तथा दारिद्रय को दूर करके राष्ट्र व समाज को समृद्धि प्रदान करने के कारण ही वेद में कृषक को अन्नपति और क्षेत्रपति कहकर उसकी स्तुति की है।

अन्नानां पतये नमः क्षेत्राणां पतये नमः। यजुर्वेद 16.18

खेती सर्वोत्तम काम

खेती को सर्वोत्तम काम माना गया है। व्यापार को मध्यम और नौकरी को नीच दर्जा दिया गया है। इसीलिए कहा गया है- उत्तम खेती, मध्यम बान अधम चाकरी भीख निदान।

कृषि को मानव कल्याण का साधन माना गया है। यजुर्वेद में राजा का मुख्य कर्त्तव्य कृषि की उन्नति, जन कल्याण और धन-धान्य की वृद्धि करे माना गया है।

कृष्यै त्वा क्षेमाय त्वा रय्यै त्वा पोषाय त्वा। यजु. 9.22

अथर्ववेद के अनुसार हमारा राजा कृषि को विशेष रीति से बढ़ावे अर्थात् जो पदार्थ मनुष्य के आरोग्य के लिए लाभदायक होते हैं, उन पदार्थों की खेती बढ़ाने का उत्साह राजा अपनी प्रजा में उत्पन्न करे। धान्यादि पदार्थ ही मनुष्य का जीवन है इसलिए जीवन को बढ़ाने वाले पदार्थ ही फल-फूल, कंद-मूल, धान्य आदि ही बढ़ाने चाहिए।

नो राजा नि कृषिं तनोति। अथर्व. 3.12.4

मनुष्यों ने (इरा-वति) अन्न युक्त शक्तियों से कहा और पुकारा कि आप हमारे पास आओ। 4 मनुष्यों को धान्यादि को जड़ दृष्टि से न देखें, परन्तु उसके अन्दर परमात्मा की जीवनशक्ति है उसको देखें और उसी दृष्टि से धान्यादि उत्पन्न करें। उसी दृष्टि से धान्यादि का सेवन करें। यदि यह दृष्टि मनुष्यों में जीवित और जागृत हो जायेगी तब तंमाखू, भांग, अफीम, गांजा आदि क्यों उत्पन्न करेगा। इन पदार्थों से सदा अमंल ही होता है जो इन पदार्थों का सेवन करता है वह अपनी सन्तान के साथ क्षीण और रोगी होता है और अनेक रोग उत्पन्न होते हैं।

कृषि योग्य भूमि

कृषि के लिए सबसे पहली आवश्यकता भूमि की है। यजुर्वेद के अनुसार बीज बोने का सर्वोत्तम स्थान भूमि को बताया है।

किं वावपनं महत्। भूमिरावपनं महत् । यजुर्वेद 23.45-46

भूमि सब लोगों की माता है। उस माता की उपासना करने का नाम खेती है। किसान साल भर अपनी मातृभूमि की सेवा करता है। इसलिए माता प्रसन्न होकर, उसको विविध प्रकार के अन्न व पेय  देती है। उसका माता के तुल्य आदर करो। अथर्ववेद भूमि को माता और मैं उसका पुत्र हूं-5 कहा है-

3. कीनाशा आसन् मरुतः सुदानवः। अथर्व. 6.30.1

घृतेन सीता मधुना समक्ता, विश्वैर्देवैरनुमता मरुद्भिः।

सा नः सीते पयसाऽभयाववृत्स्व, ऊर्जस्वती धृतवत् पिनवमान।। अर्थव. 3.17.9. यजुर्वेद 12. 70

जब जुती हुई भूमि घी और शहद से सींची जाती है और जलवायु आदि देव अनुकूल होते हैं, वत वह भूमि रसयुक्त उत्तम धन देती है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि घी, दूध एवं शहद का वैज्ञानिक रीति से प्रयोग किया जाता था।

यजुर्वेद में ‘‘मधुमतीर्न इषस्कृधि’’ कह कर माधुर्यगुण युक् अन्नों के उत्पादन का स्पष्ट वर्णन है।

अथर्ववेद के भूमि सूक्त में पृथिवी को विश्व का भरण-पोषण करने वाली, समस्त ऐश्वर्यों को धारण करने वाली, सबकी आधारशिला, सुवर्णादि को अपने वक्षस्थल में धारण करने वाली, शक्तिशाली सम्राट बाली, अग्नि को धारण करने वाली आदि विशेषणों से विभूषित किया गया है।

विश्वम्भरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी।

वैश्वानरं विभ्रती भूमिरग्निमिन्द्र ऋषभा द्रविणे नो दधातु।। अथर्व. 12. 1. 6

यजुर्वेद में कहा है कि पृथ्वी माता, हम कृषि के लिए, कल्याण के लिए, रक्षा के लिए, ऐश्वर्य के लिए तुम्हारा नमन करते हैं।

नमो मात्रे पृथिव्यै नमो मात्रे पृथिव्या इयं ते राड्…

कृष्यै त्वा क्षेमाय त्वा रय्यै त्वा पोषाय त्वा।। यजुर्वेद 9.22

भूमि के भेद

ऋग्वेद में भूमि के तीन भेद बताए गए है।6

1. आर्तना भूमि – जो भूमि पथरीली, जलहीन ओर उपजाऊ नहीं है। जिसमें कृषि करते-करते किसान बहुत दुःखी होते हैं।

2. अप्नस्वती – जो भूमि अत्यन्त उपजाऊ होती है। थोड़े परिश्रम से जिसमें बहुत धान्य उत्पन्न होता है। यह भूमि सबसे श्रेष्ठ होती है।

3. उर्वरा : जिसमें प्रतिवर्ष हल चलाया जाता है और जो प्रति वर्ष धान्य देती है।7 उर्वरा भूमि से उत्पन्न अन्न को उर्वर्य कहते हैं।8

जिस भूमि पर अन्न नहीं बोते हैं उसे ‘खल’ कहते हैं। यह भूमि खलिहान का काम करती है। इसमें कृषि से उत्पन्न अन्न को साफ किया जाता है। भूसी आदि हटाकर भंडारण के योग्य बनाया जाता है।9  खलिहान में रखे हुए अन्न को ‘खल्य’ कहते हैं।10  खलिहान में नमी के कारण कुछ कीड़े भी अन्न में लग जाते हैं। उन्हें ‘खलज’ कहा जाता है। इनको मारने का भी विधान है।11

जो भूमि कृषि के योग्य नहीं है उसे ऊषर या इरिण ;ऊसरद्ध कहते हैं।12 इसमें क्षारमृतिका ;खारी-मिट्टीद्ध होती है। शतपथ ब्राह्माण में इसे ऊषर सिक्ता कहा गया है।13

वेदों में एक प्रकार की भूमि और कही गई है जिसे खिल14 या खिल्य 15 कहा गया है। यह भूमि गौ और पशुओं के चारे और चराने के लिए रखी जाती है। अथर्ववेद में अनुसार खेती करने वालों को इसका अवश्य ध्यान करना चाहिए कि गांव में ऐसी भूमि गौवों के नाम से चराई के लिए रखी जाय जहां गौवें दिन भर घास खाती और आनन्द से पुष्ट होती रहें।

खिले गा विष्ठिता इव। अथर्व. 7.11.4

वर्षा, जल

कृषि के लिए जल अति आवश्यक है। यजुर्वेद में वर्षा के लिए प्रार्थना की गई है।16 अथर्ववेद में अन्न के लिए उत्तमभूमि और वर्षा की आवश्यकता बताई गई है। वर्षा से पृथ्वी की उर्वरा शक्ति बढ़ती है।17 भूमि को पर्जन्य की पत्नी अर्थात् वर्षा द्वारा पालित और वर्षमेदस अर्थात् वर्षा से उर्वराशक्ति की वृद्धि का उल्लेख है।

यजुर्वेद में कृषि के साथ ही वृष्टि का उल्लेख है।18 बिना वर्षा के कृषि सफल नहीं हो सकती है। उत्तम कृषि के लिए जल और औषधियों के उपयोग का वर्णन है।

सं मा सृजामि पयसा पृथिव्याः, सं मा सृजामि…अद्भिरोषधीमिः। यजुर्वेद 18.35

जहां पर पर्याप्त वृष्टि नहीं होती है वहां अन्य स्थानों से नहरों द्वारा जल लाकर कृषि करनी चाहिए।

ऋग्वेद और यजुर्वेद में अनेकप्रकार के जलों का वर्णन मिलता है।18 अर्थवेद में आठ प्रकार के जलों का वर्णन है।19

1. हैमवतीः – हिमालय पर वर्फ के रूप में पिघलकर प्राप्त

2. उत्स्या – स्रोतों के रूप में – झरनों का जल।

3. सनिष्यदाः – सदा बहने वाले नदियों का जल। (1)

4. वर्ष्याः (दिव्याः आपः) आकाश से वृष्टि द्वारा प्राप्त जल (2)

5. धन्वन्या आपः – जो मरुस्थल में जल है।

6. अनूप्या आपः – जो जल तालाब में होता है। (3)

7. खनित्रिमा आपः – भूमि खोदकर जैसे कुंए व नहरों का जल (4)

8. कुंभे आमृताः – जो घड़े में भर कर रखे गए।

सभी जल मेरे लिए कल्याण कारक हों।

वेददों के अनुसार हमें वर्षा पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिए। अपितु ऊपर बताए गए किसी भी जल से सिंचाई का प्रबन्ध करके अन्न उत्पन्न करना चाहिए। विषक्त व प्रदूषित जल से सिंचाई नहीं करनी चाहिए। ऋग्वेद में इस प्रदूषण को दूर करने के लिए भी निर्देश दिया गया है।

यन्नदीषु यदोषधीम्यः परिजायते विषम्। विश्वे देवा निरितस्तत् सुवन्तु। ऋग्वेद 7.50.3

सर्वा नद्यो अशिमिदा भवन्तु। ऋग्वेद 7.50.4

वस्तुतः सुसस्याः कृषीस्कृधि की सार्थकता तभी सम्भव है जब खेतों में बोए हुए अन्न को उत्तम खाद और स्वच्छ जल से बढ़ाया जाय और इस प्रकार उत्तम अन्न ही स्वास्थ्यप्रद व प्राण दायक सिद्ध होता है। वेदों में यथोचित् वर्षा की कामना की गई है।

निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम्। यजुर्वेद 22.22

जल की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हुए उन्हें माता कह कर महिमामंडित किया गया है।

आपो अस्मिन्यातरः शुन्ध्यन्तु। यजुर्वेद 4.2

बीच

जैसा बीज होगा वैसी ही फसल होगी। ऋग्वेद के अनुसार उत्कृष्ट अन्न के लिए उत्तम कोटि का बीज बोना चाहिए।

येन तोकाय तनयाय धान्यं बीजं वहध्वे अक्षितम्। ऋग्वेद 5.53.13

यजुर्वेद के अनुसार भू परिस्कार के बाद ही बीज बोना चाहिए।

कृते योनौ वपतेह बीजम्। यजुर्वेद 12.68

उत्तम खेती के लिए यजुर्वेद में औषधियों के जल एवं उनके मधुर रसों के साथ बीज बोने का वर्णन है। जिससे बीजों में औषधियों की शक्ति ओर गुणवत्ता बढ़ जाती है।

सं वपामि समाप औषधीभिः समोषधयो रसेन। सं मधुमतीर्मधुमतीभिः पृच्यन्ताम्। यजुर्वेद 1.21

वैदिक ऋषियों का विश्वास था कि उत्तम खेती के लिए कृषक स्वयं ही अपनी भूमि में बीज बोए और वह बीज भी स्वदेशी ही होना चाहिए। इसलिए कहा गया है-

मा वः क्षेत्रे पखी जान्य-वाप्सु।

अर्थात् अपने खेत में पराए बीज एवं पराए लोगों द्वारा बीज न बोए जाएं। इसीलिए कहा जाता है जैसा अन्न होगा वैसा ही मन होगा।

वायु

कृषि के लिए वायु की अत्यधिक आवश्यकता होती है। विशेष रूप से कार्बन डाईऑक्साईड (ब्व2) कीं। यजुर्वेद में कृषि के लिए जल और वायु का एक साथ उल्लेख है। मन्त्र में समुद्र और वायु तथा जल और वायु का उल्लेख है।

समुद्राय त्वा वाताय स्वाहा। सरिराय त्वा वाताय स्वाहा। यजुर्वेद 38.7

यजुर्वेद में कृषि के लिए वर्षा ;इन्द्रद्ध और मरुत् (वायु) का एक साथ उललेख है।

इन्द्रश्च मे मरुतश्च मे। यजुर्वेद 18.17

अथर्ववेद में अवितत्त्व ;रक्षक तत्त्व, ब्ीसवतवीलसस का उललेख है। इसके कारण ही वृक्षों और वनस्पतियों में हरियाली है।

अविर्वै नाम देवता ऋृतेनास्ते परीवृता। तस्या रूपेणेमे वृक्षा हरिता हरितस्रजः।। अथर्व. 10.8.31

धूप

कृषि के लिए धूप की अत्यधिक आवश्यकता है। यदि पेड़-पौधों को धूप नहीं मिलती है तो वे बढ़ते नहीं हैं। सूर्य की किरणों से ही पेड़ों में ऊर्जा आती है और उन्हें ग्लुकोस के रूप में भोजन मिलता हैं यजुर्वेद के अनुसार सूर्य की किरणें बीजों की उत्पत्ति और उनकी वृद्धि में कारण हैं-

तस्यां नो देवः सविता धर्मं सविषत्। यजुर्वेद 18.30

सभी अग्नियों का सहयोग कृषि को प्राप्त हो।

विश्वे भवन्त्वग्नयः समिद्धाः। यजुर्वेद 18.31

सूर्य की किरणों से न केवल ऊर्जा मिलती है अपितु कृषि के लिए वृष्टि का भी कारण है।

सूर्यस्य रश्मये वृषि्अवनये। यजुर्वेद 38.6

खाद

भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए खाद का उपयोग होता था। खाद को कृषि भूमि का भोजन कहा जाता है। यजुर्वेद में भूमि को उत्तम खाद आदि द्वारा दृढ एवं परिपुष्ट करने तथा पृथिवी की हिंसा न करने का आदेश दिया है।

पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृंह पृथिवीं मा हिंसीः। यजुर्वेद 13.18

आज कल रासायनिक खादों के अन्धाधुन्ध प्रयोग द्वारा वर्ष में अनेक फसल उपजाकर भूमि की उर्वराशक्ति को क्षीण करना, कीटनाशक दवाओं का अनुचित प्रयोग करना, भूमि पर औद्योगिक कचरे, कूड़ा कर्कट तथामल-मूत्र का अनुचित रीति से विसर्जन करना, अनुचित रीति से भूमि का काटन व भूमि पर पैदा होने वाले उसके पुत्र तुल्य वृक्षों और वनों को काटना भी वस्तुतः पृथ्वी की हिंसा है। जिसका निषेध उपर्युक्त मन्त्र में किया गया है।

आधुनिक रासायनिक खादों के अत्यधिक प्रयोग के दुष्परिणाम की बात भारतीय अनुसंधान परिषद् के महानिदेशक एवं वरिष्ठ, कृषि वैज्ञानिक श्री मंगलाराय का कथन है‘‘यहां फर्टिलाइजर के असंतुलित प्रयोग से उत्पादकता घटी है। खेतों में कार्बन समेत अन्य माइक्रो पोषक तत्वों की कमी हो गई है। पहले सनई व ढैंचा की हरी खाद और गोबर की कम्पोसट खाद का प्रयोग कर इन पोषक तत्वों को पूरा किया जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं हो पा रहा है।’’

आजकल के रासायनिक खाद से यद्यपि धान्य अधिक प्रमाण में पैदा होता है परन्तु निःसत्व होने के कारण मनुष्य के शरीर के लिए हानिकारक ही है, जिसके कारण कैंसर आदि अनेक भयानक रोग पैदा हो रहे हैं।

हरी खाद

आजकल के कृषि वैज्ञानिक सनई व ढैंचा जैसी औषधियों और वनस्पति से तैयार की जाने वाली जिस हरी खाद को महत्त्व दे रहे हैं उसके प्रयोग का उल्लेख हजारों साल पहले यजुर्वेद में किया है।

सं मा सृजामि पयसा पृथिव्याः सं मा सृजाम्यद्भिरोषधीमिः। सोऽहं वाजं सनेयमग्ने। यजुर्वेद 18.35

अर्थात् मैं पृथिवी को शु( जल से अपने खेतों को भलीभांति सींचता हूं मैं जलों व औषाधियों के रस से अपनी कृषिभूमि को संयुक्त करता हूं। इस प्रकार ह ेअग्नि (सबके अग्रणी व प्रकाशक परमात्मन्) मैं उक्त प्रकार से उत्पन्नबलदायक अन्न के सेवन से बलवान बनूं।

गोबर की खाद

वेदों में कृषि को उपजाऊ बनाने केलिए हरी खाद के अतिरिक्त गोबर की खाद का उल्लेख है। क्योंकि उसी के प्रयोग से स्वास्थ्यप्रद एवं बलवर्धक अन्न उत्पन्न किया जा सकता है। अथर्ववेद में गोशाला में निर्भय होकर एवं परस्पर मिलकर रहती हुई तथा श्रेष्ठ (गोबर) का खाद उत्पन्न करने वाली और शान्त व मधुर रस (दूध) को धारण करती हुई गौएं निरोग स्थिति में हमारे पास रहें।

सं जग्माना अबिम्युषीरस्मिन् गोष्ठे करीषिणी। विभ्रतीः सोम्यं मध्वनमीवा उपेतन।। अथर्व. 3.14.3

खाद के लिए करीष, शकन् और शकृत् ;गोबरद्ध शब्दों का प्रयोग है। खाद के लिए वेदों में अनेक मन्त्र हैं।

1. शकमयं धूमम्। ऋग्वेद 1.64.43 अथर्व. 6.128.3

2. शकृम्। ऋग्वेद 1.161.10

3. इहैव गाव एतने हो शकेव पुष्यत। अथर्व 3.14.5

4. शिवो वो गोष्ठा भवतु शारीशाके व पुष्यत। अर्थव. 3.14.5

5. यदस्याः पल्पूलनं शकृद् दासी समस्यति। अथर्व. 12.4.9

6. आ निभ्रुचः शकृदेको अपाभरत्। ऋग्वेद 1.18.61.10

 

1. गोशाला में गौवें (करीषिणी) खाद उत्पन्न करने वाली हैं।

2. गायें यहां आ जायें और (शकेव) खाद से खेत जैसे पुष्ट होते हैं वैसे गाए भी पुष्ट हों।

3. हमें गोशाला लाभदायक होवे और गौवें ऐसी पुष्ट हां कि जैसा (शारिशाकेव) शालिका खेत खाद से पुष्ट होता है।

4. इसका पोषक गोबर दासी दूर फेंकती है।

5. इसका गोबर एक उठाता है।

अथर्ववेद में खाद को फलवती कहा है।

करीषिणीं फलवतीं स्वधाम्. । अथर्व. 19.31.3

घी-दूध एवं शहद का प्रयोग

कृषि को उपजाऊ बनाने के लिए घी-दूध एवं शहद का वैज्ञानिक रीति से प्रयोग किया जाता था। विशेष प्रकार के अन्नों तथा फलदार वृक्षों वनस्पतियों को उगाने के लिए इस विधि को अपनाया जाता था। यजुर्वेंद में माधुर्य गुण युक्त अन्नों के उत्पादन का वर्णन है।

1. मधुमतीर्न इषस्कृधि। यजुर्वेद 7.2

2.धृतेन सीता मधुनासम्ज्यताम्। …पयसा पिन्वमाना।। यजुर्वेद 12.70

3. सं वपामि समाप ओषधीभिः समोषधयो रसेन। यजुर्वेद 1.21

धृतेन सीता मधुना समज्यताम् विश्वैर्देवैरनुमता मरुद्भिः।

ऊर्जस्वती पयसा पिन्वमानास्मान्त्सीते पयसाभ्याववृत्स्व।। यजुर्वेद 12.70

सुरक्षा एवं कृमिनाशक

उत्तम भूमि और अच्छे बीज आदि के होने पर भी यदि खेत की सुरक्षा नहीं की जाएगी तो कृषि-उत्पाद ठीक नहीं होगा। अतः सुरक्षा अत्यधिक आवश्यक है। यजुर्वेद में कहा गया है कि हमारी कृषि उत्तम फल से युक्त हो।

फलवत्यो न ओषाधयः पच्यन्ताम्। यजुर्वेद 22.22

यजुर्वेद में चार शब्दों से कृषि की प्रक्रिया को स्पष्ट किया गया है।

सूश्च में प्रसूश्च में सीरं च मे लयश्च मे। यजुर्वेद 18.7

1. सू का अर्थ है उत्पादन की क्षमता बाला अर्थात् उत्तम बीज।

2. प्रसू का अर्थ है प्रसव, उत्पादन और फलयुक्त अर्थात् उत्तम उत्पादन।

3. सीर का अर्थ है हल अर्थात् हल के प्रयोग से उत्तर अन्न।

4. लय का अर्थ है कृषि नाशक तत्वों को नष्ट करना।

इस प्रकार कृषि के लिए आवश्यक है उत्तम बीज, उत्तम उत्पाद, सफल कृषि और कृमि-कीट आदि का नाशन।

कृषि नाशक तत्त्व (ईति)

कृषि को हानि पहुंचाने वाले तत्त्वों को ईति कहते हैं। अथर्ववेद में कृषि नाशक तत्त्वों को सर्वथा नष्ट करने का विधान है। मन्त्र में कहा गया है कि तर्द (कृषि ने नाशक कीट, पतंगों) को नष्ट करो। बिल में रहने वाले चूहों को नष्ट करो। उनका सिर और उनकी पीड तोड़ दो। उनका मुंह बांध दो। जिससे ये जौ को न खा सकें। इस प्रकार धान्य की रक्षा करनी चाहिए।

हतं तर्दं समड़्कमाखुम् अश्विना छिन्तं शिरः। अथाभयं कृणुतं धान्याय। अथर्व. 6.50.1

पतंग और वधापति शब्दों से कीड़ों और टिड्डियों को नष्ट करने का विधान है। जिससे ये जौ आदि की खेती को हानि न पहुंचा सकें। ‘व्यद्वर’ शब्द से हानि पहुंचाने वाले कीट आदि का उल्लेख है। ‘सर्वान् जम्भयामसि’ इन सबको पूर्णतया नष्ट कर देना चाहिए।

तर्द है पतंग है जम्य हा उपक्वस। अथर्व. 6.50.2

तर्दापते वघापते….सर्वान् जम्भयामसि। अथर्व. 6.50.3

इस प्रकार इन मन्त्रों में तर्द, आखु, पतंग, जम्य, उपक्न्वस, तर्दापति, वधापति आदि शब्दों से चूहा, कीट, पतंगों और टिड्डी आदि सभी कीट नाशक तत्त्वों को नष्ट करने की शिक्षा दी गई है।

इसके अतिरिक्त अतिवृष्टि ओर अनावृष्टि को भी खेती के लिए हानिकारक माना गया है।

खेत पर बिजली न गिरे और सूर्य की तीव्र किरणें हिमपात ;पालाद्ध खेती को नष्ट न करें।

मा नो वधीर्विद्युताः। अथर्व. 7.11.1

एक मन्त्र में अवृष्टिको दूर करने की प्रार्थना की गई है।1

अन्न के प्रकार

यजुर्वेद में दो प्रकार के अन्नों का वर्णन मिलता है।

1. कृष्टपच्य – जो कृषि से उत्पन्न होता है, गेहूं, धान आदि।

2. अकृष्टपच्य – जो बिना कृषि के उत्पन्न होता है। जैसे जंगली धान्य। 2

वर्ष्य – वर्षा से उत्पन्न होने वाले ।

अवर्ष्य – जो कुएं, नहर आदि की सिंचाई से होते हैं। 3

यजुर्वेद में बाहर अनाजों के नाम प्राप्त होते हैं। 1. व्रीहि (धान) 2. यव (जौ) 3 माष (उड़द), 4. तिल 5.मुद्ग (मूंग) 6. खल्व (चना) 7. प्रियंगु (कंगुनी) 8. अणु (पतला या छोटा चावल) 9. श्यामाक (सांवा) 10. नीवार (कोदों या तिन्नी धान) 11. गोधूम (गेहूं) 12. मसूर (मसूर)।

ब्रीह्यश्च में यवाश्च मे भाषाश्च मे तिलाश्च मे मूद्गाश्च मे खल्वाश्च मे प्रियंगवश्च मेऽणवश्च मे श्यांमाकाश्च मे नीवाराश्च मे गोधूमाश्च मे मसूराश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्। यजुर्वेद 18.12

ऋग्वेद और अथर्ववेद में धन्य और यव का उल्लेख है।4

वेदों में अन्नों के अतिरिक्त वृक्षों और वनस्पतियों फलवाली, फूलवाली, बिना फूलवाली औषधियों जड़ी-बूटियों का विस्तृत वर्णन मिलता है।5

वेदों में वस्त्रों के बुनने का भी वर्णन मिलता है।6

खेती के साधन

उस समय खेती बैलों द्वारा होती थी। 6 और आठ बैलों से चलने वाले हलों का वर्णन है।7

इसके अलावा हाथ से खुदाई करने के लिए कुदार, बेलचा फावड़ा और खुरपा होता था। जिन्हें वेद में खनित्र कहा जाता था।8 धान्यादि उत्पन्न होने के बाद उसको काटने के लिए हंसिया तथा दांती चाहिए वेदों में इसे दात्र, सृणि कहा गया है। 9 फसल काटने के बाद भूषा आदि अलग करने के लिए छज (शूर्प), तिलक (छननी) का प्रयोग किया जाता था।10 इस प्रकार धान्य को साफ करके सुरक्षित रखा जाता था।

पशु पालन

पशु पालन का भी कृषि के लिए उपयोग होता था। इसलिए वेदों में पशुओं के संवर्धन आदि का भी विस्तृत वर्णन मिलता है।11 गाय को अधन्या अर्थात् अवध्य कहा गया है। 12 गाय को विराट ब्रह्म का प्रतीक बताते हुए उसकी हत्या का निषेध किया गया है।13 इसमें सभी देवताओं का निवास बताया गया है।14 गावो भगः कह कर गाय को सौभाग्य का रूप बताया गया है।15 जहां गाय का पशुओं का संरक्षण होता है, वहां धन धान्य की वृद्धि होती है।16 जहां गाय का संरक्षण होता है वहां सौभाग्य की वृ( होती है।17 यजुर्वेद के अनुसार गाय, नील गाय, ऊंट, भेड़, श्रभ ;आठ पैर वाला विशाल पशु, गौर ;भैंसाद्ध दो पैर और चार पैर वाले पशुओं, घोड़े की हत्या न करो।18

कृषि और यज्ञ

वेदों में उत्तम खेती का आधार यज्ञ को बताया गया है। ‘कृषिश्च में… यज्ञेन कल्पान्ताम।’’ यजुर्वेद 18.9 यज्ञ को परमात्मा का रूप माना गया है। यज्ञों वै विष्णुः उसे संसार का केन्द्र या नाभि कहा गया है।

यज्ञो वै भुवनस्य नाभिः। तैत्ति. ब्राह्मण 3.9.5.5

सारा सृष्टि चक्र यज्ञ के ,द्वारा चल रहा है। यह यज्ञ प्रकृति में स्वाभाविक रूप से चल रहा है। इसमें बसन्त ऋतु घी का, ग्रीष्म ऋतु समिधा का और शरद् ऋतु सामग्री;हविद्ध का कार्य कर रहा है।

वसन्तोऽस्यासीदाजयं ग्रीष्म इध्मः शरद् हविः। यजुर्वेद 31.14

यजुर्वेद में यज्ञ से होने वाले लाभों का विस्तृत वर्णन है।

1. यज्ञ से अन्न और फल-फूल की वृद्धि।1

2. बीज का अंकुरित होना और फल धारण करना। हल से धान्य की उत्पत्ति, अच्छी फसल के बाधक तत्त्वों का विनाश।2

3. उत्तम कृषि और वृष्टि का होना।3

4. अक्षय अन्न और धान्य आदि की प्राप्ति।4

5. जल और अग्नि की प्राप्ति। वृक्ष-वनस्पतियों की वृ(।5

6. यज्ञ के द्वारा इन्द्र ;वर्षाद्ध और मरुत ;वायुद्ध का होना।6

7. यज्ञ के द्वारा अग्नि की ऊष्मा, सूर्य की ऊष्मा, सूर्य की किरणों का प्रकाश, उत्तम भूमि को प्राप्त होना।7

ऋग्वेद के अनुसार यज्ञ से मेघ बनते हैं और वर्षा के रूप में पृथ्वी पर लौटते हैं।8 अग्नि देव इन्द्र ;मेघद्ध को बढ़ाते हैं अर्थात् यज्ञ से मेघ बनते हैं।9  गीता में कहा गया है यज्ञ से बादल बनते हैं। बादलों से वृष्टि और उससे अन्न होता है। अन्न से ही प्राणीमात्र की उत्पत्ति होती है।10

कृषि भूमि तथा विशाल कृषि क्षेत्रों के आसपास विशेष अवसरों पर अर्थात् फसल की बुआई और वृद्धि के समय वैदिक यज्ञ विज्ञान के अनुसार निर्मित हवन सामग्री के द्वारा विशाल यज्ञ किए जायें। जिससे कृषि भूमि तथा उसके निकट का समस्त वातावरण तथा जलवायु आदि परिशुद्ध परिपुष्ट व रोगाणुओं से रहित होकर पर्याप्त स्वास्थ्यप्रद अन्न की उत्पत्ति हेतु बन जाए। साथ ही यज्ञ कुण्ड की राख तथा गौ आदि पशुओं  से निर्मित खाद को कृषि भूमि व उसमें उगी फसल में विखेरा जाए। आज कल जर्मन व अनेक देशों में यज्ञ व यज्ञ के धुएं, सामग्री आदि पर अनेक सफल प्रयोग किए जा रहे हैं।

जब यज्ञ से परिपूरित पृथ्वी पर, यज्ञ सं परिशुद्ध मेघ बरसेंगे, या से सुगन्धित वायु प्रभावित होगी, यज्ञ में उच्चरित वेद मन्त्रों की ध्वनि एवं विश्व कल्याण की भावनाओं से भावित परिश्त व परिपुष्ट पृथ्वी जल व वायु के सम्पर्क से उत्पन्न अन्न व फल प्राणीमात्र के लिए सुखदायक, मन और बुद्धि को सशक्त व शुद्ध बनाने में समर्थ हांगे। जिससे समूचे समाज का वातावरण सौहार्दमय, शान्तिमय तथा आनन्दमय बन जाएगा।

अन्त में यही कहा जा सकता है कि यदि इस यज्ञीय वैदिक विधि को वैज्ञानिक रीति से विकसित करके कृष्ज्ञि हेतु उपयोग में लाया जाए तो उससे कृष्ज्ञि के क्षेत्र में एक नई क्रान्ति को जन्म दिया जा सकता हैं इस प्रकार अन्न को विषाक्त करने वाले तथा भूमि की शक्ति को क्षीण करने वाले, कृत्रिम एवं महंगे रासायनिक खादों से बचा जा सकता है।

आयुषे त्वा वर्चसे त्वा कृष्यै त्वा क्षेमाय त्वा। यजुर्वेद 14.21

कृष्यै त्वा क्षेमाय त्वा रय्यै त्वा पोषाय त्वा। यजुर्वेद 9.22

हे भूमि हम सब तुझे प्राप्त करके जो कृषि कर रहे हैं वह दीर्घ आयुष्य, तेज, क्षेम अर्थात् सुख, पुष्टि और धन प्राप्त करने के लिए है। कृषि के द्वारा प्राप्त अन्न से हमें सब प्रकार के ऐश्वर्यों की प्राप्ति हो यही कामना की गई है।

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